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जीवन की सीख

नफरत का भार बहुत ज्यादा होता है…
उसे छोड़ देना ही अच्छा होता है !!
और झूठ के पैर नहीं होते…
उससे दूर रहना ही अच्छा होता है !!
भाग्य और झूठ के साथ
जितनी ज्यादा उम्मीद करोगे…
वो उतना ही ज्यादा निराश करेगा !!
और..
कर्म और सच पर जितना जोर दोगे…
वो उम्मीद से सदैव ही ज्यादा देगा !!
जब आप नई-नई कार खरीद कर लाते हैं, तो बहुत प्रसन्नता होती है। नई कार का आनंद भी विशेष होता है। “वैसे तो किसी भी नई वस्तु का आनंद विशेष होता है। फिर भी हम कार का एक उदाहरण लेकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहते हैं।”
तो जैसे नई कार का विशेष आनंद होता है। उसमें नया इंजन, नए पुर्जे, सब कुछ मजबूत होते हैं। कार का मालिक उसका खूब आनंद लेता है। उसमें अधिक सवारी बिठा कर भी यात्रा कर लेता है। कार के पुर्जे मजबूत होने के कारण अधिक भार भी सह लेते हैं, और कोई विशेष परेशानी नहीं होती।
परंतु धीरे-धीरे 4/5 वर्ष में कार के पुर्जे घिसने लगते हैं, तो कुछ कुछ परेशानी आरंभ होती है। फिर 10 वर्ष बाद तो कार के पुर्जे काफी ढीले हो जाते हैं, परेशानियां और अधिक बढ़ने लगती हैं, और कार मालिक को, कार की सेवा करनी पड़ती है। “फिर 14/15 वर्ष के बाद तो वह कार ‘बेकार’ ही हो जाती है, तथा व्यक्ति उस ‘बेकार’ कार से दुखी होकर उसे बेच ही डालता है, और नई कार खरीद लेता है।”
इसी उदाहरण के समान जब आत्मा को नया शरीर मिलता है, तो वह बचपन में बड़े उत्साह के साथ, चंचलता के साथ नाचता कूदता दौड़ता फिरता है। धीरे-धीरे किशोर अवस्था एवं युवा अवस्था आ जाती है। खा पीकर और खेल कूद कर शरीर में बल अच्छा बढ़ जाता है। “वह युवक भाग दौड़ पढ़ाई लिखाई खेलकूद नौकरी व्यापार आदि सब कुछ अच्छे ढंग से सुखपूर्वक कर लेता है। फिर 35/40 वर्ष की आयु तक यह सब अच्छा चलता है।”
परंतु 35/40 वर्ष की आयु के बाद शरीर में भी वैसे ही रोग लगने आरंभ हो जाते हैं, जैसे कि कार में 4/5 वर्ष के पश्चात परेशानियां आरंभ हो गई थीं। “अब 35/40 के बाद जब शरीर में रोग बढ़ने लगते हैं। तब आत्मा को भी शरीर की सेवा करनी पड़ती है। जैसे जैसे आयु बढ़ती जाती है, वैसे वैसे रोग भी बढ़ते हैं। शरीर में कमजोरी बढ़ती है, और इसकी सेवा भी अधिक अधिक करनी पड़ती है। अब यह शरीर उतना चुस्त और फुर्तीला नहीं रह जाता, उतना सुखदायक नहीं रह जाता, जितना कि बचपन और जवानी में था।”
जो लोग बचपन से लेकर 35/40 वर्ष तक की आयु में शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं, शरीर पर तनाव दबाव अधिक नहीं डालते, सात्विक और सीमित मात्रा में भोजन खाते हैं, उचित मात्रा में व्यायाम तथा विश्राम भी करते हैं, उनका शरीर देर तक स्वस्थ एवं बलवान रहता है। “परिणाम यह होता है कि उनके बुढ़ापे में शरीर में रोग कम आते हैं, देर तक शरीर में शक्ति बनी रहती है, और उन्हें शरीर की सेवा कम करनी पड़ती है।”
“परंतु जो लोग 35/40 वर्ष की आयु तक शरीर से बेतहाशा काम लेते हैं, इसे बुरी तरह से रगड़ते हैं, इसे तोड़ डालते हैं, भोजन ठीक से नहीं खाते, सात्विक भोजन नहीं खाते, अंडे मांस शराब आदि भोजन खाते पीते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, आलस्य प्रमाद व्यभिचार आदि दोषों में डूबे रहते हैं, उनके शरीर में 35/40 वर्ष की आयु के बाद अनेक रोग लग जाते हैं। अधिक मात्रा में, तथा अधिक खतरनाक रोग लग जाते हैं। उनको बुढ़ापे में शरीर की बहुत अधिक सेवा करनी पड़ती है। ऐसे लोग बुढ़ापे में बहुत दुखी होते हैं।”
पुरानी कार को तो व्यक्ति बेचकर दूसरी खरीद लेता है। परंतु शरीर को 40/50 वर्ष की आयु में बेचकर दूसरा नया शरीर तत्काल भी नहीं ले सकता। “वह शरीर की 40/50 वर्ष की आयु में 25/30 वर्ष वाली जवानी की तरह से जीना चाहता है, जो कि संभव नहीं हो पाता। जैसे तैसे 60 वर्ष की आयु पार करते करते तो सिर्फ पश्चाताप ही हाथ में रह जाता है।” नया शरीर तो मरने के बाद ही मिलेगा।
बुढ़ापे में पश्चाताप न करना पड़े, आपको शरीर की सेवा अधिक न करनी पड़े, इसलिए 40 वर्ष से कम आयु तक, सावधानीपूर्वक अपना जीवन जीएँ। अपने शरीर पर अधिक अत्याचार न करें। इससे बेतहाशा दिन रात काम न लेवें। इसे पूरा विश्राम भी देवें। “ब्रह्मचर्य का पालन करें, आलस्य प्रमाद व्यभिचार आदि दोषों से बचें। अन्यथा बुढ़ापे में आपको बहुत कष्ट उठाने पड़ेंगे और इस शरीर की बहुत अधिक सेवा भी करनी पड़ेगी।”

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