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कविता “अनोखा रिश्ता”

“अनोखा रिश्ता”

बाल गोपाल,
तुम मेरे जीवन का उपहार हो !
तुम्हारी किलकारी ,
मेरे कानो में हमेशा गूंजती है !
तुम्हारी मुस्कान,
खुशी को दुगुना कर देती है !
तुम न मुझे , मेरे जैसे लगते हो ,
तुम्हारा बात-बात में हठ करना
मानो, मुझे मुझसे ही मिलता है !
दूध , दही , मक्खन , लस्सी
इतना पसंद है , तुम्हे ,
मानो मुझे मेरे बचपन से ही मिलता है !
हर दिन , नए-नए कपडे पहनना
मुझे मेरी किसी आदत से मिलवाता है
ऐसा लगता है, मानो मैं तुम पर नहीं,
तुम मेरे पर गए हो!
मेरी नज़रे क्योँ हमेशा तुम पर टिकी रहती है,
कि तुम कोई नटखट शैतानी न कर दो,
मेरी डाट -फटकार में जैसे तुम
कोई अपनापन सा ढूढ़ते रहते हो !
तुम्हारे सिर पर मुकुट की चमक,
मुझे अँधेरे में रौशनी सी लगती है !
हर समय सिर्फ,तुमको ही याद करना
मेरी आँखों का तुम्हे ढूढ़ते रहना
क्योँ हमेशा इतना जाना पहचाना
सा लगता है!
तुम्हे इधर -उधर जहाँ भी देखती हुँ,
अपने आप, मेरे पैरो का रुक जाना !
तुम्हारी प्यारी सी सूरत को देखकर
हमेशा अपने आप मे खो जाना !
मुझे अपनी ही छवि से मिलवाता है क्योँ?
क्योँ, मीठे से अहसास का मुझे छू जाना!
तुम्हारे हाथ में बासुरी, और मेरे हाथ में कलम
क्योँ एक जैसी लगती है !
तुम्हारा हर किसी से मिलकर उससे अपना बना लेना,
और मेरा हर किसी से मिलकर उसमे अपनापन ढूढ लेना!
क्योँ एक जैसा सब कुछ लगता है !
इतना दूर होकर भी कोई ,
क्योँ इतना करीब सा लगता है !
क्योँ एक अटूट बंधन सा
तुमसे मुझे लगता है !
मेरे लाला , क्योँ मुझे तुम अपने से लगते हो !
कही ऐसा तो नहीं , तुम मुझमें अपनी माँ,
और मैं तुममें अपना लाला ढूढ़ती हूं ! !

-निधि शर्मा,
(पर्ल कोर्ट , वैशाली , गाज़ियाबाद , उत्तर प्रदेश )

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