18 अप्रैल/बलिदान-दिवस
अमर बलिदानी दामोदर हरि चाफेकर
दामोदर हरि चाफेकर उस बलिदानी परिवार के अग्रज थे, जिसके तीनों पुष्पों ने स्वयं को भारत माँ की अस्मिता की रक्षा के लिए बलिदान कर दिया। उनका जन्म 25 जून, 1869 को पुणे में प्रख्यात कथावाचक श्री हरि विनायक पन्त के घर में हुआ था। दामोदर के बाद 1873 में बालकृष्ण और 1879 में वासुदेव का जन्म हुआ। तीनों भाई बचपन से ही अपने पिता के साथ भजन कीर्तन में भाग लेते थे।
दामोदर को गायन के साथ काव्यपाठ और व्यायाम का भी बहुत शौक था। उनके घर में लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’ नामक समाचार पत्र आता था। उसे पूरे परिवार के साथ-साथ पास पड़ोस के लोग भी पढ़ते थे। तिलक जी को जब गिरफ्तार किया गया, तो दामोदर बहुत रोये। उन्होंने खाना भी नहीं खाया। इस पर उसकी माँ ने कहा कि तिलक जी ने रोना नहीं, लड़ना सिखाया है। दामोदर ने माँ की वह सीख गाँठ बाँध ली।
अब उन्होंने ‘राष्ट्र हितेच्छु मंडल’ के नाम से अपने जैसे युवकों की टोली बना ली। वे सब व्यायाम से स्वयं को सबल बनाने में विश्वास रखते थे। जब उन्हें अदन जेल में वासुदेव बलवन्त फड़के की अमानवीय मृत्यु का समाचार मिला, तो सबने सिंहगढ़ दुर्ग पर जाकर उनके अधूरे काम को पूरा करने का संकल्प लिया। दामोदर ने शस्त्र संचालन सीखने के लिए सेना में भर्ती होने का प्रयास किया; पर उन्हें भर्ती नहीं किया गया। अब वह अपने पिता की तरह कीर्तन-प्रवचन करने लगे।
एक बार वे मुम्बई गये। वहाँ लोग रानी विक्टोरिया की मूर्ति के सामने हो रही सभा में रानी की प्रशंसा कर रहे थे। दामोदर ने रात में मूर्ति पर कालिख पोत दी और गले में जूतों की माला डाल दी। इससे हड़कम्प मच गया। उन्हीं दिनों पुणे में प्लेग फैल गया। शासन ने मिस्टर रैण्ड को प्लेग कमिश्नर बनाकर वहाँ भेजा। वह प्लेग की जाँच के नाम पर घरों में और जूते समेत पूजागृहों में घुस जाता। माँ-बहनों का अपमान करता। दामोदर एवं मित्रों ने इसका बदला लेने का निश्चय किया। तिलक जी ने उन्हें इसके लिए आशीर्वाद दिया।
22 जून, 1897 को रानी विक्टोरिया का 60वाँ राज्यारोहण दिवस था। शासन की ओर से पूरे देश में इस दिन समारोह मनाये गये। पुणे में भी रात के समय एक क्लब में पार्टी थी। रैण्ड जब वहाँ से लौट रहा था, तो दामोदर हरि चाफेकर तथा उसके मित्रों ने उस पर गोली चला दी। इससे आर्यस्ट नामक अधिकारी वहीं मारा गया। रैण्ड भी बुरी तरह घायल हो गया और तीन जुलाई को अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी।
पूरे पुणे शहर में हाहाकार मच गया; पर वे पुलिस के हाथ न आये। कुछ समय बाद दो द्रविड़ भाइयों के विश्वासघात से दामोदर और फिर बालकृष्ण पकडे़ गये। जिन्होंने विश्वासघात कर उन्हें पकड़वाया था, वासुदेव और रानाडे ने उन्हें गोली से उड़ा दिया। रामा पांडू नामक पुलिसकर्मी ने अत्यधिक उत्साह दिखाया था, उस पर थाने में ही गोली चलाई; पर वह बच गया।
न्याय का नाटक हुआ और 18 अप्रैल, 1898 को दामोदर को फाँसी दे दी गयी। अन्तिम समय में उनके हाथ में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित तथा हस्ताक्षरित ग्रन्थ ‘गीता रहस्य’ था। उन्होंने हँसते हुए स्वयं ही फाँसी का फन्दा गले में डाला। आगे चलकर बालकृष्ण, वासुदेव और रानाडे को भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया।