फिल्म द कश्मीर फाइल्स आने के बाद कश्मीरी पंडितों के एक से बढ़कर एक दर्दनाक अनुभव सामने आ रहे हैं। इन्हीं में से एक रविंद्र पंडित भी हैं, जिनके पिता के साथ आतंकियों ने न केवल अमानवीय व्यवहार किया, बल्कि उन्हें तड़पाकर मारा। रविंद्र ने कश्मीरी पंडितों के लिए बनाए गए कैंपों की दुर्दशा भी बयां की, जिसे सुनकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं।
आइए बताते हैं रविंद्र की जुबानी असली कश्मीर फाइल्स की दर्दनाक कहानी…
किसी के शरीर में नुकीली चीज से अनगिनत छेद किए जाएं और लोहे के कंटीले तार को गले में लपेटकर उस शख्स को पेड़ से लटका दिया जाए, उस दर्द और छटपटाहट की कोई कल्पना कर सकता है क्या? वह शख्स थे मेरे पिता पंडित जगरनाथ। अगर हमने हथियार उठा लिए होते तो एक और नरसंहार होता।
द कश्मीर फाइल्स के एक सीन में पेड़ से लटकी दो लाशें देखकर रूह कांप जाती है। यह कोई फिक्शन नहीं, रियल स्टोरी है।
फिल्म के एक सीन से कहीं ज्यादा खतरनाक है यह कहानी
‘तीन भाइयों में मैं सबसे ज्यादा पापा से अटैच था। उस वक्त टीन एजर था। दो साल तक डिप्रेशन से निकल नहीं पाया था। आज भी अचानक कभी भी यह खयाल आ जाता है कि जब पहला छेद उनके शरीर पर किया गया होगा तो उन पर क्या गुजरी होगी… फिर दूसरा छेद, फिर तीसरा और फिर इतने छेद की गिनती याद न रहे।
फिर एक आतंकी बगीचे में चारों ओर लगे कंटीले तार को काटकर लाया होगा, उनके गले में उसे लपेटा होगा। फिर खींचकर उन्हें उसी पेड़ से लटकाया होगा, जिस पेड़ के सेब हम खाते थे।’
तीन दिन तक पेड़ से लटकी रही थी पापा की बॉडी
‘7 अक्टूबर 1990 की शाम को मेरे पापा और उनके साथ हमारे एक रिलेटिव दफ्तर से घर लौटे थे। हमारा घर, जिला कुपवाड़ा, तहसील हंदवाड़ा के गांव भगत पोरा में था। पापा ने पहला निवाला ही शायद खाया था कि तभी हमारे नौकर ने उनसे कहा, सर कोई बाहर आपको बुला रहा है। थाली छोड़कर वे दोनों बाहर निकले तो वहां असल में उनसे मिलने और कोई नहीं आतंकवादी आए थे।
वे लोग उन्हें घर से करीब 500 मीटर या एक किलोमीटर दूर हमारे बगीचे में ले गए। वहां उन्हें खूब टॉर्चर किया। हमें बाद में पता चला कि आतंकी उनसे पाकिस्तान जिंदाबाद कहलाना चाहते थे, उन्होंने जब ऐसा कहने से इनकार किया तो उनके पूरे शरीर को शायद कीलों से छेद डाला।’
‘तब भी वे वंदेमातरम कहते रहे तो उनके गले में कंटीला तार बांधकर उनके ही सेब के पेड़ से लटका दिया। आतंकियों ने पेड़ से लटकी दोनों लाशों पर एक नोट भी छोड़ा। अगर किसी ने इन्हें नीचे उतारा तो उसका भी वही अंजाम होगा, जो इन दोनों का हुआ। तीन दिन तक किसी ने उन्हें पेड़ से नहीं उतारा। फिर पुलिस आई। उसने उन्हें पेड़ से उतारा।’
हत्या के 24 घंटे बाद हमें पता चला था
‘उस वक्त मोबाइल या फोन तो चलन में नहीं थे। हमें अखबार से 8 अक्टूबर को पता चला। तीन दिन बाद उनकी लाश जब पेड़ से उतारी गई तो उनके शरीर पर छेद ही छेद थे, गले में कंटीला तार था। इस मामले में इन्वेस्टिगेशन भी हुई। अखबारों में निकली खबरों से भी कुछ पता चला। हमने इस मामले की पूरी छानबीन के बारे में जानने के लिए आरटीआई भी डाली, एफआईआर भी की। सबकुछ हमारे पास है।’
उनका अंतिम संस्कार भी गांव में नहीं होने दिया
‘आतंकियों का खौफ था या फिर कश्मीरी पंडितों से नफरत। पता नहीं, लेकिन गांव वालों ने उनका अंतिम संस्कार तक वहां नहीं होने दिया। कुपवाड़ा लाकर उनका संस्कार किया गया। गांव में मुस्लिमों की अच्छी आबादी थी। वहां आतंकवाद चरम पर था, लेकिन किसी स्थानीय व्यक्ति ने कभी इस बात का विरोध नहीं किया। हमसे तो कभी किसी ने नहीं कहा कि आप लोग कश्मीर मत छोड़ो। हम आपके साथ हैं।’
जॉब की वजह से नहीं निकल पाए थे पापा
‘जब यह घटना हुई तो सिर्फ पापा और उनके एक रिलेटिव भगत पोरा में थे। बाकी मेरे चाचा उनका परिवार, हम तीनों भाई, दादी फरवरी में हालात बिगड़ने के दौरान ही जम्मू चले गए थे। पापा की सरकारी नौकरी थी, इसलिए उन्हें रुकना पड़ा था।’
रिफ्यूजी कैंपों में नरक झेला है हमने
‘आंकड़ों से परे दो गुना से भी ज्यादा करीब 5 लाख कश्मीरी पंडितों ने पलायन किया था। हत्याएं, रेप बेइंतहां हुए थे। दर्ज आंकड़े तो बहुत कम हैं। हम अपनी बड़ी- बड़ी कोठियां छोड़कर बरसों ऐसे कैंपों में रहे, जहां पानी मिलना भी मुश्किल होता था। बरसात, लू न जाने क्या- क्या हमने सहे। कैंपों में कई लोग ऐसी विकट हालात के चलते मर गए। 40-45 डिग्री की तपिश नहीं झेल पाए। सांपों के काटने से कई लोग मरे। भले ही आतंकियों ने ये हत्याएं नहीं की, लेकिन ये सब भी नेचुरल डेथ नहीं थीं।’
हमें ही नहीं हमारी निशानियां भी मिटा दी गईं
‘मैं हाल में एक बार अपने घर गया, लेकिन वहां हमारे घर का नामोनिशान तक नहीं था। गांव वालों ने घर को गिराकर जमीन समतल करा दी थी। हमारे कई और पड़ोसियों के घर भी अब वहां नहीं हैं। हां, बगीचा जरूर है। वो भी जंगल बन चुका है।
घर के करीब एक मंदिर अब भी है। हमारी यादों को दफ्न कर दिया गया है। क्या अब भी कहेंगे कि मुस्लिमों ने हमें बचाने की कोशिश की थी? हमें रोका था? एक जेनोसाइड एक जेनरेशन की हत्या नहीं करता, कई जेनरेशन उस घाव को लिए जीती हैं।’
मां थीं नहीं, पापा भी नहीं रहे
‘तीनों भाइयों में मैं अपने पापा से बेहद अटैच था। तब मैं 17-18 साल का था। 8 अक्टूबर 1990 को जब पापा के बारे में पता चला तो मैं डिप्रेशन में चला गया। आंसू नहीं निकले। पापा को चुभाई गई कीलों का दर्द मेरे भीतर उठने लगा। आज भी उठता है। वह कंटीला तार आज भी मेरे गले में फांसी की तरह चुभता है। डॉक्टरों ने कहा, अगर रोया नहीं तो यह सदमा कभी खत्म नहीं होगा। दो साल तक डिप्रेशन का इलाज चला।’
‘मेरी मां तो 1978 में ही चल बसी थीं। और अब पापा की ऐसी हत्या…। वह तो मेरे बड़े भाई ने मुझे महाराष्ट्र पढ़ने भेज दिया। मेरे बड़े भाई उस वक्त टीचर थे। माहौल बदला तो पढ़ाई में खुद को झोंक दिया। इंजीनियर बनकर वहां से बाहर निकला।’