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जम्मू-कश्मीर में पहला हिंदू मुख्यमंत्री बनाना BJP का लक्ष्य, कैसे पूरा होगा यह सपना? जानिए

जम्मू-कश्मीर में इस हफ्ते दो बड़े राजनीतिक घटनाक्रम हुए हैं. साल 2013 में पुलिस महानिरीक्षक के पद से सेवानिवृत्त होने वाले फारूक खान ने दिल्ली से मिले संकेत पर लेफ्टिनेंट जनरल मनोज सिन्हा के सलाहकार पद से इस्तीफा दे दिया. वयोवृद्ध कांग्रेस नेता डॉ कर्ण सिंह के बेटे और जम्मू-कश्मीर के अंतिम डोगरा सम्राट हरि सिंह के पोते विक्रमादित्य सिंह ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया.

फारूक खान का इस्तीफा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जम्मू यात्रा के एक दिन बाद हुआ. पिछले 6 महीनों में अमित शाह दो बार जम्मू-कश्मीर के दौरे पर आ चुके हैं. कुछ स्थानीय अखबारों में खबरें प्रकाशित हुईं कि फारूक खान को “जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जा सकती है.” हालांकि, द टाइम्स ऑफ इंडिया में श्रीनगर की डेटलाइन से छपी स्टोरी में इन खबरों का खंडन किया गया, जिसने संकेत दिया कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व फारूक खान को लेकर चर रही खबरों से खुश नहीं था.

रिपोर्ट के अनुसार, जिसे अब तक चुनौती दी गई है, फारूक खान का लंबे समय से सहयोगी रहे जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक कर्मचारी ने अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से बहुत अधिक करोड़ों रुपये की संपत्ति अर्जित कर रखी है. यह पुलिस कर्मचारी फारूक खान की जम्मू-कश्मीर पुलिस के विशेष अभियान समूह (एसओजी) में पुलिस अधीक्षक पद पर तैनाती के समय से उनके साथ जुड़ा हुआ है और कथित तौर पर अब इन्सपेक्टर के पद पर काबिज है.

भाजपा फारूक खान को जम्मू-कश्मीर में देगी बड़ी जिम्मेदारी?
फारूक खान के दादा विभाजन के बाद से ही जम्मू में भाजपा के अग्रदूत रहे नेताओं से जुड़े रहे. लेकिन खान को मार्च 2014 में हीरानगर में नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली में भाजपा में शामिल होने तक किसी भी राजनीतिक दल के साथ नहीं जोड़ा गया था. आतंकवाद विरोधी मोर्चे पर फारूक खान की हाई-प्रोफाइल भूमिका के लिए पीएम मोदी ने उनकी प्रशंसा की थी. उन्हें उत्तर-पूर्व में भाजपा का प्रभारी नियुक्त किया गया था. इसके बाद लक्षद्वीप के प्रशासक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई थी.

साल 2018 में पीडीपी के साथ भाजपा का गठबंधन टूटने के बाद, खान को जम्मू और कश्मीर में राज्यपाल के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था. कई सेवानिवृत्त आईएएस और आईपीएस अधिकारी सलाहकार के रूप में आते-जाते रहे, लेकिन जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने और राज्यपाल की जगह उपराज्यपाल के लेने के बाद भी खान ने बिना ब्रेक के अपना पद बरकरार रखा.

मनोज सिन्हा के सलाहकार फारूक खान ने क्यों इस्तीफा दिया?
अगर जम्मू में सत्ता के गलियारों में चल रही खबरों की मानें, तो खान के उपराज्यपाल के साथ बहुत अच्छे संबंध नहीं थे. नौकरशाही जुड़ कुछ सूत्रों का कहना है कि यूपी और चार अन्य राज्यों में विधानसभा चुनावों के तुरंत बाद, जम्मू-कश्मीर राजभवन ने पूर्व उपराज्यपाल और कुछ सलाहकारों द्वारा नियंत्रित कुछ मामलों में सीबीआई जांच के आदेश दिए. फारूक खान जम्मू के स्थायी निवासी हैं और उन्हें राज्य में भाजपा के मुस्लिम चेहरे के रूप में देखा जा रहा था. ​हालांकि, मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में समुदाय के साथ उनके संबंध सीमित थे. उनके गुमनामी में उतरने का मतलब यह होगा कि भाजपा इस केंद्र शासित प्रदेश के मुस्लिम क्षेत्रों से अपने लिए बहुत कम राजनीतिक जनाधार की उम्मीद कर रही थी.

विक्रमादित्य ने जम्मू रीजन में राजपूत वोट-बैंक के एक हिस्से पर अपने परिवार के प्रभाव को बरकरार रखा है, इसके बावजूद ​​​​कि प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह और उनके भाई देविंदर सिंह राणा, जो हाल ही में नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) से भाजपा में शामिल हुए हैं, 2014 से ही चुनाव जीतते आ रहे हैं. विक्रमादित्य के भाई अजातशत्रु सिंह नेशनल कांफ्रेंस के साथ लंबे जुड़ाव के बाद 2015 में भाजपा में शामिल हुए थे. वह 1996-2002 में फारूक अब्दुल्ला की सरकार में मंत्री रह चुके हैं. वह 2015 से 2019 तक भाजपा से विधानपरिषद सदस्य थे.

क्या कांग्रेस छोड़ने वाले विक्रमादित्य भाजपा में शामिल होंगे?
अब विक्रमादित्य के भी बीजेपी में शामिल होने की अटकलें लगाई जा रही हैं. हालांकि, उन्होंने News18 को स्पष्ट किया कि वह तुरंत किसी भी राजनीतिक दल में शामिल नहीं हो रहे हैं. उन्होंने कहा, “मैं जल्दी में नही हूं. मैं अपने आदर्शों के अनुसार पूरी तरह से दिमाग लगाने के बाद निर्णय लूंगा.” विक्रमादित्य ने परिसीमन, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, बालाकोट में भारत की एयर स्ट्राइक और कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर कांग्रेस के स्टैंड के साथ अपनी असहमति को पार्टी से इस्तीफे की मुख्य वजहें बताई.

विक्रमादित्य ने कहा, ”हम कब तक इनकार कर सकते हैं कि पंडितों का नरसंहार हुआ और उन्हें बड़े पैमाने पर पलायन के लिए मजबूर किया गया? मैं वहां था. मैंने इसे देखा और झेला है. मैं किसी को दोष नहीं दे रहा हूं लेकिन फैक्ट-फाइंडिंग आयोग के गठन की मेरी मांग को गंभीरता से नहीं लिया गया. इस आयोग ने अब तक सच्चाई की खोज की होती. मैं कब तक कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक लाइन के खिलाफ जा सकता था?” उनके कांग्रेस छोड़ने के बाद जम्मू रीजन में पार्टी का जनाधार और सिकुड़ने का संकेत मिलता है.

इस साल के आखिरी तक जम्मू-कश्मीर में चुनाव संभव है
लेकिन, अभी के लिए, सभी की निगाहें इस सवाल पर हैं कि केंद्र शासित प्रदेश का पहला विधानसभा चुनाव कब होगा? जिसका कोई जवाब नहीं देता. पिछले साल के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह कई बार कह चुके हैं कि परिसीमन प्रक्रिया समाप्त होने के तुरंत बाद 5-6 महीनों में जम्मू-कश्मीर में चुनाव हो सकता है. मार्च 2021 में मिले एक वर्ष के विपरीत इस बार जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग को 2 महीने का सीमित विस्तार मिला है. यह राज्य में विधानसभा चुनाव जल्द होने के पहले गंभीर संकेत हैं.

डीएस राणा सहित भाजपा के वरिष्ठ नेता नवंबर-दिसंबर 2022 में जम्मू-कश्मीर में चुनाव को लेकर आश्वस्त हैं. उनका मानना ​​​​है कि 90 विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं का परिसीमन, पूर्ववर्ती राज्य विधानसभा से लद्दाख के 4 क्षेत्रों को घटाने और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के अनुसार सात नए खंडों को जोड़ने का कार्य, 6 मई, 2022 की अपनी वर्तमान समय सीमा के भीतर पूरा हो जाएगा.

जम्मू-कश्मीर का चुनाव भाजपा के लिए नाक का सवाल है
फिर भी, चार राज्यों में हाल की जीत के बाद भाजपा के उत्साह के समानांतर, एक चेतावनी भी है. अगस्त 2019 के बाद के संवैधानिक परिवर्तनों के बाद जम्मू-कश्मीर में सफलता पूर्वक चुनाव संपन्न होने से, भाजपा को निश्चित रूप से 2024 के लोकसभा चुनावों में फायदा मिलेगा. लेकिन फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी को जम्मू-कश्मीर में भाजपा निष्प्रभावी करने में विफल रही है. यदि चुनाव में ये दोनों पार्टियां अच्छा करती हैं, तो इसे राष्ट्रीय विपक्ष द्वारा कश्मीर को लेकर किए गए भाजपा के फैसलों के खिलाफ जम्मू-कश्मीर के जनमत संग्रह के रूप में दिखाया जाएगा.

भाजपा के जम्मू-कश्मीर यूनिट के अध्यक्ष रविंदर रैना आगामी चुनाव में न केवल अपनी पार्टी के बहुमत हासिल करने का दावा कर रहे हैं, बल्कि कह रहे हैं कि पहली बार जम्मू का कोई नेता राज्य का मुख्यमंत्री बनेगा. वह भाजपा कार्यकर्ताओं से कहते रहे कि “जम्मू-कश्मीर में पहला हिंदू मुख्यमंत्री” भाजपा की सर्वोच्च प्राथमिकता है. अगस्त 2019 के बाद, भाजपा ने नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी को ‘वंशवादी दल’ कहकर उन पर लगातार निशाना साधा है. जम्मू-कश्मीर में की वर्तमान स्थिति के लिए इन दोनों दलों को जिम्मेदार ठहराया है.

भाजपा की नजर जम्मू रीजन में क्लीन स्वीप करने पर होगी
दूसरी ओर, घाटी स्थित मुख्यधारा की ये दोनों बड़ी पार्टियां अनुच्छेद 370 की बहाली और जम्मू-कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य बनाने की अपनी मांग पर अडिग हैं. बीजेपी और पीपुल्स अलायंस फॉर गुप्कर डिक्लेरेशन (PAGD) के बीच इस मुद्दे को लेकर तनातनी की स्थिति बन चुकी है. ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा की रणनीति पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस के कुछ बड़े नेताओं को तोड़ने और घाटी में अपने कुछ संभावित सहयोगी बनाने की है. अंदरूनी सूत्रों के अनुसार भाजपा का लक्ष्य कठुआ, सांबा, जम्मू और उधमपुर जिलों तक फैली मुख्य डोगरा भूमि में क्लीन स्वीप के साथ जम्मू में 30-32 सीटें हासिल करना है. वहीं, भाजपा का मानना ​​है कि कश्मीर में उसके संभावित सहयोगी आराम से 18-20 सीटें जीत सकते हैं. राज्य में सरकार गठन के लिए 46 सीटों की आवश्यकता होगी.

कांग्रेस की निष्क्रियता से जम्मू रीजन में BJP काफी मजबूत
चूंकि कांग्रेस निष्क्रिय है और जम्मू रीजन में भाजपा के स्थानीय प्रतिद्वंदी पिछले पांच वर्षों में कुछ खास पैठ नहीं बना पाए हैं, इसलिए केंद्र की सत्ता में काबिज दल को स्पष्ट लाभ है. लेकिन यह जम्मू रीजन तक ही सीमित है. जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की भाजपा की महत्वाकांक्षा काफी हद तक नेशनल कांफ्रेंस में फूट डालने की उसकी क्षमता पर निर्भर करेगी. अब तक एक भी नेता ने फारूक अब्दुल्ला की पार्टी को नहीं छोड़ा है. सिर्फ पीडीपी से आने वाले बशारत बुखारी ने नेशनल कांफ्रेंस छोड़कर सज्जाद लोन की पार्टी पीपल्स कान्फ्रेंस (पीसी) जॉइन की है.

इस दौरान पीडीपी को भारी नुकसान हुआ है, क्योंकि उसके 20 से अधिक प्रमुख नेता या तो लोन के पीपल्स कान्फ्रेंस या अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी में स्थानांतरित हो गए हैं. अब तक इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि पीएजीडी के घटक- नेकां, पीडीपी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) न केवल घाटी में बल्कि जम्मू के 16 मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी सीटों का बंटवारा करेंगे. नेशनल कांफ्रेंस के एक नेता ने कहा, “एक बार फिर, बीजेपी को सत्ता हथियाने से रोकें” हमारा नारा होगा.

भाजपा के लिए जम्मू-कश्मीर में सत्ता पाने का क्या है रास्ता?
अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का मानना ​​है कि जम्मू में धार्मिक ध्रुवीकरण की अंतर्धारा निश्चित रूप से बीजेपी को फायदा पहुंचाएगी. हालांकि, 68% मुस्लिम आबादी वाले केंद्र शासित प्रदेश में यह न्यूटन के गति के तीसरे नियम ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ को ट्रिगर करेगा और चुनाव को सीधे 1977 जैसी स्थिति की ओर ले जाएगा. जब शेख अब्दुल्ला की पार्टी ने कश्मीर में तीन सीटों को छोड़कर सभी सीटें जीती थीं, साथ ही जम्मू में मुस्लिम बाहुल्य 9 और सीटों पर कब्जा कर लिया था.

नेशनल कांफ्रेंस में फूट BJP के लिए गेम-चेंजर साबित होगा
भाजपा के लिए, बहुत कुछ घाटी में उसके सहयोगियों के प्रदर्शन पर भी निर्भर करेगा. अगर 2020 के ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल चुनावों के नतीजों को देखें तो, पीएजीडी की पकड़ वाले इस क्षेत्र में भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए सेंध लगा पाना मुश्किल लगता है. हालांकि, नेशनल कांफ्रेंस में फूट गेम-चेंजर साबित होगा. पीडीपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ”इस बार कोई नेता मायने नहीं रखेगा. चुनाव दिल्ली और कश्मीर के बीच है. आपको या तो कश्मीर के लिए वोट करना है या दिल्ली के लिए.” एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि, जब भी आयोजित होगा, यह जम्मू-कश्मीर का सर्वाधिक वोटर टर्नआउट वाला मतदान होगा.

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