उत्तरप्रदेश

आज 16.12.2021 के विचार अवश्य पढ़ें आपका जीवन बदल जाएगा- श्री अरविंद शर्मा

समय संयम सफलता की कुंजी है

जीवन का महल समय की—घण्टे-मिनटों की ईंटों से चिना गया है। यदि हमें जीवन से प्रेम है तो यही उचित है कि समय को व्यर्थ नष्ट न करें। मरते समय एक विचारशील व्यक्ति ने अपने जीवन के व्यर्थ ही चले जाने पर अफसोस प्रकट करते हुए कहा था—‘‘मैंने समय को नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है।’’

खोई दौलत फिर कमाई जा सकती है। भूली हुई विद्या फिर याद की जा सकती है। खोया हुआ स्वास्थ्य चिकित्सा द्वारा लौटाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय किसी प्रकार नहीं लौट सकता, उसके लिए केवल पश्चाताप ही शेष रह जाता है।

जिस प्रकार धन के बदले में अभीष्ठिट वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं, उसी प्रकार समय के बदले में विद्या, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, आरोग्य, सुख-शान्ति, मुक्ति आदि जो भी वस्तु रुचिकर हो खरीदी जा सकती है। ईश्वर ने समय रूपी प्रचुर धन देकर मनुष्य को पृथ्वी पर भेजा है और निर्देश दिया है कि वह इसके बदले में संसार की जो भी वस्तु रुचिकर समझें खरीद लें।

किन्तु कितने व्यक्ति हैं जो समय का मूल्य समझते और उसका सदुपयोग करते हैं? अधिकांश लोग आलस्य और प्रमाद में पड़े हुए जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बर्बाद करते रहते हैं। एक-एक दिन करके सारी आयु व्यतीत हो जाती है और अन्तिम समय वे देखते हैं कि उन्होंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जिन्दगी के दिन यों ही बिता दिए। इसके विपरीत जो जानते हैं कि समय का नाम ही जीवन है वे एक-एक क्षण को कीमती मोती की तरह खर्च करते हैं और उसके बदले में बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। हर बुद्धिमान् व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा परिचय यही दिया है कि उसने जीवन के क्षणों को व्यर्थ बर्बाद नहीं होने दिया। अपनी समझ के अनुसार जो अच्छे से अच्छा उपयोग हो सकता था, उसी में उसने समय को लगाया। उसका यही कार्यक्रम अन्ततः उसे इस स्थिति तक पहुँचा सका, जिस पर उसकी आत्मा सन्तोष का अनुभव करे।

प्रतिदिन एक घण्टा समय यदि मनुष्य नित्य लगाया करे तो उतने छोटे समय से भी वह कुछ ही दिनों में बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य पूरे कर सकता है। एक घण्टे में चालीस पृष्ठ पढ़ने से महीने में बारह सौ पृष्ठ और साल में करीब पन्द्रह हजार पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं । यह क्रम दस वर्ष जारी रहे तो डेढ़ लाख पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। इतने पृष्ठों में कई सौ ग्रन्थ हो सकते हैं। यदि वे एक ही किसी विषय के हों तो वह व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ बन सकता है। एक घण्टा प्रतिदिन कोई व्यक्ति विदेशी भाषाएँ सीखने में लगावे तो वह मनुष्य निःसन्देह तीस वर्ष में इस संसार की सब भाषाओं का ज्ञाता बन सकता है। एक घण्टा प्रतिदिन व्यायाम में कोई व्यक्ति लगाया करे तो अपनी आयु को पन्द्रह वर्ष बढ़ा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के प्रख्यात गणित के आचार्य चार्ल्स फास्ट ने प्रतिदिन एक घन्टा गणित सीखने का नियम बनाया था और उस नियम पर अन्त तक डटे रह कर ही इतनी प्रवीणता प्राप्त की।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर समय के बड़े पाबन्द थे। जब वे कॉलेज जाते तो रास्ते के दुकानदार अपनी घड़ियाँ उन्हें देखकर ठीक करते थे। वे जानते थे कि विद्यासागर कभी एक मिनट भी आगे-पीछे नहीं चलते।

एक विद्वान ने अपने दरवाजे पर लिख रखा था। ‘‘कृपया बेकार मत बैठिए। यहाँ पधारने की कृपा की है तो मेरे काम में कुछ मदद भी कीजिए।’’ साधारण मनुष्य जिस समय को बेकार की बातों में खर्च करते रहते हैं, उसे विवेकशील लोग किसी उपयोगी कार्य में लगाते हैं। यही आदत है जो सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों को भी सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा देती है। माेजार्ट ने हर घड़ी उपयोगी कार्य में लगे रहना अपने जीवन का आदर्श बना लिया था। वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा-पड़ा भी कुछ करता रहा। रैक्यूम नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ उसने मौत से लड़ते-लड़ते पूरा किया।

ब्रिटिश कॉमनवेल्थ और प्रोटेक्टरेट के मन्त्री का अत्यधिक व्यस्त उत्तरदायित्त्व वहन करते हुए मिल्टन ने ‘पैराडाइस लास्ट’ की रचना की। राजकाज से उसे बहुत कम समय मिल पाता था, तो भी जितने कुछ मिनट वह बचा पाता उसी में उस काव्य की रचना कर लेता। ईस्ट इंडिया हाउस की क्लर्की करते हुए जान स्टुअर्ट मिल ने अपने सर्वोत्तम ग्रन्थों की रचना की। गैलेलियो दवा-दारू बेचने का धंधा करता था तो भी उसने थोड़ा-थोड़ा समय बचाकर विज्ञान के महत्त्वपूर्ण आविष्कार कर डाले।

हेनरी किरक व्हाट को सबसे बड़ा समय का अभाव रहता था, पर घर से दफ्तर तक पैदल आने और जाने का समय सदुपयोग करके उसने ग्रीक भाषा सीखी। फौजी डॉक्टर बनने पर अधिकतर समय घोड़े की पीठ पर बीतता था। उसने उस समय को भी व्यर्थ न जाने दिया और रास्ता पार करने के साथ-साथ उसने इटैलियन और फ्रेंच भाषाएँ भी पढ़ लीं। यह याद रखने की बात है कि—‘‘परमात्मा एक समय में एक ही क्षण हमें देता है और दूसरा क्षण देने से पूर्व उस पहले वाले क्षण को छीन लेता है। यदि वर्तमान काल में उपलब्ध क्षणों का हम सदुपयोग नहीं करते तो वे एक-एक करके छिनते चले जायेंगे, अन्त में खाली हाथ ही रहना पड़ेगा।’’

एडवर्ड वटलर लिटन ने अपने एक मित्र को कहा था—लोग आश्चर्य करते हैं कि मैं राजनीति तथा पार्लियामेंट के कार्यक्रमों में व्यस्त रहते हुए भी इतना साहित्यिक कार्य कैसे कर लेता हूँ? 60 ग्रन्थों की रचना मैंने कर ली? पर इसमें आश्चर्य की बात नहीं। यह नियन्त्रित दिनचर्या का चमत्कार है। मैंने प्रतिदिन तीन घण्टे का समय पढ़ने और लिखने के लिए नियत किया हुआ है। इतना समय मैं नित्य ही किसी न किसी प्रकार अपने साहित्यिक कार्यों के लिए निकाल लेता हूँ। बस इस थोड़े से नियमित समय ने ही मुझे हजारों पुस्तकें पढ़ डालने और साठ ग्रन्थों के प्रणयन का अवसर ला दिया।

घर-गृहस्थी के अनेक झंझटों और बाल-बच्चों की साज-सँभाल में दिन भर लगी रहने वाली महिला हैरियट वीचर स्टो ने गुलाम-प्रथा के विरुद्ध आग उगलने वाली वह पुस्तक ‘टाम काका की कुटिया’ लिखकर तैयार कर दी, जिसकी प्रशंसा आज भी बेजोड़ के रूप में की जाती है।

चाय बनाने के लिए पानी उबालने में जितना समय लगता है, उसमें व्यर्थ बैठे रहने के बजाय लांगफैलो ने ‘इनफरल’ नामक ग्रन्थ का अनुवाद करना शुरू किया और नित्य इतने छोटे समय का उपयोग इस कार्य के लिए नित्य करते रहने से उसने कुछ ही दिन में वह अनुवाद पूरा कर लिया।

इस प्रकार के अगणित उदाहरण हमें अपने चारों ओर बिखरे हुए मिल सकते हैं। हर उन्नतिशील और बुद्धिमान मनुष्य की मूलभूत विशेषताओं में एक विशेषता अवश्य मिलेगी—समय का सदुपयोग। जिसने इस तथ्य को समझा और कार्य रूप में उतारा उसने ही यहाँ आकर कुछ प्राप्त किया है, अन्यथा तुच्छ कार्यों में आलस्य और उपेक्षा के साथ दिन काटने वाले लोग किसी प्रकार साँसें तो पूरी कर लेते हैं, पर उस लाभ से वंचित ही रह जाते हैं जो मानव-जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु प्राप्त होने पर उपलब्ध होनी चाहिए या हो सकती थी।

समय की संपदा नष्ट न करें

समय अपनी गति से चल रहा है, चल ही नहीं रहा—भाग रहा है। निरंतर गतिमान इस समय के साथ कदम मिलाकर चलने पर ही मानव जीवन की सार्थकता है। इसके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है। पिछड़ना सफलता से दूर हटना है, उसकी ओर गतिशील होना नहीं।

सुनते हैं कि मनुष्य की साँसें गिनी हुई हैं। एक श्वाँस के साथ जीवन की इस अमूल्य निधि की एक इकाई कम हो गई। एक-एक करके इकाइयाँ कम होती जाएँ तो जीवन की पूँजी एक दिन चुक जाती है। उस समय मृत्यु दूत बनकर लेने आ जाते हैं, उसके साथ जाते-जाते व्यक्ति पीछे मुड़कर देखता है तो उसे ज्ञात हो जाता है कि उसने कितनी बेदर्दी से समय को गँवाया है या उसके एक-एक क्षण का सदुपयोग किया है।

संपदा का, विद्या का रोना सभी को रोते देखा है। कोई धन के अभाव में दुःखी है तो किसी के पास ज्ञान नहीं—विद्या नहीं, उसके लिए सिर पीट रहा है। समझ में नहीं आता कि यह हनुमान कब अपनी सामर्थ्य को समझेंगे तथा एक छलांग मारकर लंका पहुँच जाएँगे। विश्व की संपदा, विश्व का ज्ञान भंडार तो उनकी बाट जोह रहा है। समय जैसी मूल्यवान संपदा का भंडार भरा होते हुए भी जो विनिमय कर धन-ज्ञान तथा लोकहित को नहीं पा सकते उनसे अधिक अज्ञानी किसे कहा जाए?

समय अमूल्य है, समय को जिसने बिना सोचे-समझे खरच कर दिया वह जीवन पूँजी भी यों ही गँवा देता है। यह पूँजी अपने आप खरच होती है, आप कृपण बनकर उसे सोने-चाँदी के सिक्के की तरह जोड़कर नहीं रख सकते। यह गतिवान है, आप अपनी अन्य संपदाओं की तरह उस पर अधिकार जमा नहीं सकते। आपका उस पर स्वामित्व वहीं तक है कि आप उसका सदुपयोग कर लें।

जिस व्यक्ति में समय को खरचने की, उसका सदुपयोग करने की सामर्थ्य नहीं होती तो समय उसे खरच कर देता है। दिन-रात के चौबीस घंटे कम नहीं होते। इस समय को हम किस प्रकार व्यतीत करते हैं, इसका लेखा-जोखा करते चलें तो हमें ज्ञात हो जाता है कि हम जी रहे हैं या समय को व्यर्थ गँवाकर एक प्रकार की आत्महत्या कर रहे हैं।

अपनी इस प्राकृतिक धरोहर का अधिकांश मनुष्य समुचित सदुपयोग नहीं करते। बचपन में इतना ज्ञान नहीं होता कि इसका मूल्य समझें। खेलकूद तथा मित्रों व भाई-बहिनों के झुंड के साथ यों ही इस संपदा को लुटाते चलते हैं। एक दिन यौवन आ खड़ा होता है, वह यौवन समय के बहुमूल्य वरदान के रूप में मिलता है। यह वह सामर्थ्य होती है जिसे यदि अधिक समय तक स्थाई बनाया जा सके, तन से—मन से बूढ़े न हो जाएँ तो गिनी हुई साँसों के इस जीवन में बहुत काम कर सकते हैं। इसे निर्दयता से खरच कर देने पर बुढ़ापा अपनी कमजोर टाँगों व धुँधली आँखों से हमारा स्वागत करता है; तब हम चौंक पड़ते हैं, निराश हो जाते हैं और सिर पर हाथ रखकर चिंताओं के सागर में डूब जाते हैं। भला जब यौवनकाल में कुछ न कर पाए तो अब क्या कर सकेंगे? यह निराशा ही ले डूबती है। सच्चा व्यापारी तो वह होता है, जो घाटा होने पर भी व्यापार बंद नहीं करता, धैर्य तथा बुद्धिमत्ता से पुनः अपने उखड़े पाँव जमा लेता है। दो तिहाई जीवन बीत गया तो क्या हुआ—एक तिहाई तो बचा हुआ है, उसमें भी बहुत कुछ काम किया जा सकता है।

प्रकृति ने किसी को अमीर-गरीब नहीं बनाया, उसने तो सबको मुक्त-हस्त से अपना अमूल्य वैभव लुटाया है। श्रम की सामर्थ्य तथा समय का अनुदान इन दो अस्त्रों से सुसज्जित करके उसने अपने सभी पुत्रों को जीवन के समरांगण में मस्तक पर तिलक कर विजयश्री वरण करने के लिए भेजा है।

धन से महत्त्वपूर्ण है—यह समय की संपदा। नौकरी करने वालों को महीने भर में वेतन मिलता है, यह वेतन धन के, रुपयों के रूप में मिलता है। इस धन का पूरा-पूरा उपयोग हो, इस उद्देश्य से जो व्यक्ति समझदार होते हैं, वे बजट बनाते हैं। महीने भर में खाने पर कितना धन खरच होगा—निर्धारित किया जाता है। समय उससे भी मूल्यवान है, इसलिए विवेकीजन उसका भी उसी प्रकार बजट बनाते हैं, समय सारिणी बनाते हैं जिससे कि इसका अपव्यय न हो जाए।

दिन भर के चौबीस घंटों में किस समय से किस समय तक क्या-क्या काम होंगे? इस प्रकार की समय सारिणी बनाकर उस पर चलने से समय का सदुपयोग तो होता ही है, काम भी अधिक होता है तथा जीवन में सरसता बनी रहती है। जो उनका विभाजन नहीं करते वे दिनभर कोल्हू के बैल की तरह लगे भले ही रहें काम कम ही कर पाते हैं तथा अधिक समय तक एक ही काम करने से थकान तथा मानसिक अरुचि उत्पन्न हो जाती है—जीवन का यह ढर्रा थोड़े ही दिनों में व्यक्ति को निराश बना देता है।

हमारा बहुमूल्य ‘वर्तमान’ क्रमशः भूत बनता चला जा रहा है और हम यह देख-समझ नहीं पाते कि प्रमाद द्वारा कितनी मूल्यवान संपदा का अपहरण किया जा सकता है?

भूत के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत डरावना होता है। कहते हैं कि मरने के बाद अशांत व्यक्ति भूत बनता है। मरणोत्तर जीवन में क्या स्थिति होती है? कौन, क्यों, और कैसे भूत बनता है और वह कैसा होता है? यह सब कुछ अभी रहस्य के गर्भ में है। अन्वेषण के उपरांत ही इस संदर्भ में कुछ सही निष्कर्ष निकलेंगे। समय की असामयिक और अशांत मृत्यु के उपरांत उसकी प्रतिक्रिया तथाकथित भूत से भी भयंकर होती है—इस तथ्य को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।

जीवन की सूक्ष्म सत्ता की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति समय के रूप में ही सामने आती है। समय का किस प्रकार, किस प्रयोजन के लिए उपयोग किया गया, इसी का लेखा-जोखा जीवन मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। जो समय का महत्त्व और स्वरूप समझ सका और उसके सदुपयोग के लिए समग्र जागरूकता के साथ तत्पर हो गया समझना चाहिए उसे जिंदगी मिल गई, अन्यथा इस ओर उपेक्षा बरतने वाले, अन्यमनस्क रहने वाले, क्रमिक आत्महत्या ही करते चले जाते हैं। बहुमूल्य मणि-मुक्ताओं को फटी थैली में भरकर चलने वाले राह में उन्हें टपकाते जाते हैं और घर पहुँचते-पहुँचते उस निधि को गवाकर खाली हाथ रह जाते हैं। इसी प्रकार समय के साथ उपेक्षा करने वाले अपने आपके साथ एक क्रूर मजाक करते हैं। अपने भविष्य के साथ यह एक मर्मभेदी व्यंग है कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों को ऐसे ही खोते-गँवाते चला जाए।

हम क्रमशः मर रहे हैं। जीवन की संपदा का एक-एक दाना एक-एक क्षण के साथ समाप्त होता चला जाता है। बूँद-बूँँद पानी टपकते रहने से भरा-पूरा किंतु फूटा घड़ा कुछ ही समय में खाली हो जाता है। जीवन की रत्न-संपदा हर साँस के साथ घटती चली जाती है। क्रमशः हमारा हर कदम मरण की ओर ही उठता है। आयु वृद्धि के साथ-साथ मरण का दिन निकट से निकटतम आता चला जाता है। जो दैवी वरदान जैसा अमूल्य था, जिसके आधार पर कुछ भी खरीदा पाया जा सकता था वह किस प्रकार गलता-जलता, टूटता और मिटता चला जा रहा है, इसे देखने की न इच्छा होती है न फुरसत। फलतः हमारा अनुपम अस्तित्व भूत बनता चला जाता है। इस प्रकार असामायिक मृत्यु की भयंकरता तथाकथित भूत-प्रेतों से कम नहीं। जब समय के सदुपयोग और दुरुपयोग के परिणामों का तुलनात्मक अंतर किया जाता है, तब प्रतीत होता है कि तत्परता और उपेक्षा के बीच दीखने वाला नगण्य-सा अंतर अंतत: कितने भारी भिन्न परिणामों के रूप में सामने आता है।

समय ही जीवन है, समय ही उत्कर्ष है, समय ही महानता के उच्चतम शिखर तक चढ़-दौड़ने का सोपान है। महाकाल की उपासना का जो स्वरूप समझ सका है उसी को मृत्युञ्जयी बनने का सौभाग्य मिला है और किसी के साथ भी मखौल किया जा सकता है, पर महाकाल के साथ नहीं। सिंह के दाँत गिनने की धृष्टता किसी को नहीं करनी चाहिए। समय के दुरुपयोग की भूल अपने भाग्य और भविष्य को ठुकराने-लतियाने की तरह है। जो समय गँवाया है वह प्रकारांतर से अपने उत्कर्ष और आनंद का द्वार ही बंद करता है। मरण की दिशा में हम द्रुतगति से घिसटते चले जा रह हैं। खोने और गँवाने का दुर्भाग्य प्रमादियों के पल्ले बँधता है, पर जो जीवन संपदा से लाभान्वित होने के लिए जागरूक हैं, उसे साँसों के बहुमूल्य मणि-मुक्तकों का ध्यान रहता है और वे एक घड़ी भी निरर्थक नहीं गवाते। योजनाबद्ध दिनचर्या बनाते हैं और उस पर आरूढ़ रहते हैं। जानते हैं कि समय की संपदा को प्रमाद के श्मशान में जलाने वालों को आत्म-प्रताड़ना की आग में बेतरह जलना पड़ता है।

समय का सदुपयोग करिए, यह अमूल्य है

मनुष्य जीवन में रुपए-पैसों से भी अधिक महत्त्व समय का है। धन का अपव्यय निर्धन बनाता है, किन्तु जिन्होंने समय का सदुपयोग करना नहीं सीखा और उसे आलस्य तथा प्रमाद में गँवाते रहते हैं, उनके सामने आर्थिक विषमता के अतिरिक्त नैतिक तथा सामाजिक बुराइयाँ और कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती हैं। समय का उपयोग धन के उपयोग से कहीं अधिक विचारणीय है, क्योंकि उस पर मनुष्य की सुख-सुविधा के सभी पहलू अवलम्बित हैं। इसलिए हमें अर्थ-अनुशासन के साथ-साथ नियमित जीवन जीने का प्रशिक्षण भी प्राप्त करना चाहिए।

जो समय व्यर्थ में ही खो दिया गया, उसमें यदि कमाया जाता तो अर्थ प्राप्ति होती, स्वाध्याय या सत्संग में लगाते तो विचार और सन्मार्ग की प्रेरणा मिलती। कुछ न करते केवल नियमित दिनचर्या में ही लगे रहते तो इस क्रियाशीलता के कारण अपना स्वास्थ्य तो भला-चंगा रहता। समय के अपव्यय से मनुष्य की शक्ति और सामर्थ्य ही घटती है। कहना न होगा कि नष्ट किया हुआ वक्त मनुष्य को भी नष्ट कर डालता है।

संसार का काल-चक्र भी कभी अनियमित नहीं, लोक और दिक्पाल, पृथ्वी और सूर्य, चन्द्र और अन्य ग्रह वक्त की गति से गतिमान हैं। वक्त की अनियमितता होने से सृष्टि का कोई काम चलता नहीं, धरती में यही नियम लागू है। लोग समय का अनुशासन न रखें तो रेल, डाक, कल-कारखाने, कृषि, कमाई आदि सभी ठप्प पड़ जाएँ और उत्पादन व्यवस्था में गतिरोध के साथ सामान्य जीवन पर भी उसका कुप्रभाव पड़े। एक तरह से सारी सामाजिक व्यवस्था उथल-पुथल हो जाय और मनुष्य को एक मिनट भी सुविधापूर्वक जीना मुश्किल हो जाय। जिस तरह अभी लोग भली प्रकार सारे क्रिया-कलाप कर रहे हैं वैसे कदापि नहीं हो सकते। अतः हमको भी अपनी दिनचर्या को अपने जीवन कार्यों की आवश्यकतानुसार विभक्त करके उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए।

अपने कार्यों का वर्गीकरण (1) स्वास्थ्य (2) धन और (3) सामाजिक सदाचार की दृष्टि से कीजिए और एक दिन के वक्त को इसी क्रम से बाँटकर अपने लिए एक व्यवस्थित दिनचर्या बाँध लीजिए और उसी के अनुसार चलते रहिए। इसी में आपकी सारी बातों का समावेश किया जाना चाहिए और उसी के अनुरूप जीवन-क्रम चलता रहना चाहिए। इससे आप अधिक सुखमय जीवन जी सकेंगे।

वैयक्तिक सुखोपभोग और सांसारिक कार्यों में क्षमतावान् होने के लिए आपका स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है। स्वास्थ्य-सुख जीवन की प्रमुख शर्त है, अतः उन सभी नियमों को प्राथमिकता दीजिए जिनसे आपका शरीर और मन स्वस्थ व सशक्त रहता है। हमेशा सूर्योदय से कम से कम एक घण्टा पहले उठा कीजिए और शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर कुछ टहलने या व्यायाम आदि की व्यवस्था बना लीजिए। प्रातःकाल की मुक्त वायु शरीर को शक्ति और पोषण प्रदान करता है, दिन-भर देह स्फूर्ति और ताजगी से भरी रहती है। इस अवसर को गँवाना रोग और दुर्बलता को निमन्त्रण देने से कम नहीं। जो लोग बिस्तरों में पड़े सोते रहते हैं, वे प्रातःकालीन ऊषीय-रश्मियों, निर्दोष वायु से वंचित रह जाते हैं और उनका शरीर सुस्त और निस्तेज हो जाता है। वे कोई भी कार्य आधी रुचि से करते हैं तदनुकूल सफलता भी आधी ही मिलती है।

दिन-भर के कार्यों का अनुमानित आकार भी आप बिस्तर से उठते ही बना लीजिए और फिर उसमें परिश्रमपूर्वक लग जाया कीजिए। सफलता के लिए खीझ या परेशानी मन में न आने देकर मस्तीपूर्वक सुबह से शाम तक काम में जुटे रहिए। यह क्रियाशीलता आपको रोगों और दुश्चिन्ताओं से दूर रखेगी। यह याद रखिए कि नियमित वक्त पर किया हुआ काम पूर्ण रूप से भली-भाँति सम्पन्न होता है और उसके पूरा हो जाने से आन्तरिक उल्लास और प्रसन्नता की वृद्धि होती है। इससे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मनोबल तथा आत्मबल भी बढ़ता रहता है। इसी तरह सायंकाल को भी अपने उन सभी कार्यों की समीक्षा करनी चाहिए जो दिन-भर आपने किए हैं। उनमें से कोई ऐसा दीखे जिससे आपके शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता हो तो उसे आगे के लिए रोकने या कम करने का प्रयत्न कीजिए।

सारांश यह है कि वक्त का विभाजन करते वक्त आप स्वास्थ्य की बात को भी ध्यान में रखिए और उसके प्रति बेपरवाह मत हो जाइए। आप चाहें तो वक्त के सदुपयोग और व्यवस्थित कार्य प्रणाली द्वारा स्वयं ही स्वस्थ बने रह सकते हैं। कार्यों में इनका दुरुपयोग करके उसे आलस्य में भी खो सकते हैं, पर याद रखिए इस बात का ध्यान जितनी देर बाद में आएगा अपने आपको उतना ही पिछड़ा हुआ अनुभव करेंगे।

यही बात उपार्जन के बारे में भी लागू होती है। शुभ और सुखी जीवन के लिए धन बहुत आवश्यक है। आर्थिक विषमता होने से दूसरे दैनिक कार्य भी कठिनाई से चल पाते हैं, इसलिए धनोपार्जन के लिए भी समय का उपयोग कीजिए। समय के गर्भ में लक्ष्मी का अक्षय भण्डार भरा पड़ा है, पर उसे पाते वही हैं जो उसका सदुपयोग करते हैं।

आपको जितना समय कार्यालय में काम करना पड़ता है, उतने से ही सन्तोष नहीं हो जाना चाहिए। अपने लिए कोई अन्य रुचिकर घरेलू उद्योग चुनकर भी अपनी आय बढ़ाने का प्रयत्न होना चाहिए। जापान के नागरिक ऐसा ही करते हैं। वे छोटी मशीनों या खिलौनों के पुर्जे लाकर रख लेते हैं और अपने व्यावसायिक कार्य से फुरसत मिलने पर नियमित रूप से कुछ वक्त उसमें भी लगाते हैं। इन कार्यों में वे अपने परिवार वालों का भी सहयोग लेते हैं और इस तरह वे अपनी बँधी आय के लगभग बराबर आय पार्ट टाइम में कर लेते हैं। उनकी खुशहाली का सबसे बड़ा कारण वक्त का समुचित सदुपयोग ही कहा जा सकता है।

स्वास्थ्य और धनोपार्जन के अतिरिक्त जो वक्त शेष रहता है उसका सदुपयोग समाज कल्याण के लिए करना चाहिए। वक्त का अभाव किसी के पास नहीं, पर अधिकांश व्यक्ति उसे बेकार के कार्यों में व्यतीत किया करते हैं। ताश, चौपड़, शतरंज, मटरगस्ती आदि में वक्त बर्बाद करने से शरीर और मन की शक्ति का पतन होता है। इस वक्त का सदुपयोग सामाजिक उत्थान के कार्यों में करना हमारा धर्म है।

समय का महत्त्व अमूल्य है। उसके समुचित सदुपयोग की शिक्षा ग्रहण करें तो इस मनुष्य जीवन में स्वर्ग का-सा सुखोपभोग प्राप्त किया जा सकता है। आवश्यक है कि अपने वक्त को उचित प्रकार से दिन भर के कार्यों में बाँट लें, जिससे जीवन के सब काम सुचारु रूप से होते चले जाएँ। हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि वक्त ही जीवन है। यदि हमें अपने जीवन से प्रेम है, तो अपने वक्त का सदुपयोग भी करना चाहिए।

हम अपना वक्त आलस्य और निरर्थक कार्यों में खर्च न करें। आलस्य दुनिया की सबसे भयंकर बीमारी है। आलस्य समस्त रोगों की जड़ है। उसे साक्षात् मृत्यु कहें तो इसमें अत्युक्ति न होगी। अन्य बीमारियों से तो शरीर सारे मनुष्य जीवन को ही खा डालता है। आलस्य में पड़कर मनुष्य की क्रिया शक्ति कुण्ठित होने लगती है जिससे न केवल शरीर शिथिल पड़ता है वरन् आर्थिक आय के साधन भी शिथिल पड़ जाते हैं।

हमारी जीवन व्यवस्था के लिए समय रूपी बहुमूल्य उपहार परमात्मा ने दिया। इसका एक-एक क्षण एक-एक मोती के समान कीमती है। जो इन्हें बटोरकर रखता है, सदुपयोग करता है, वह यहाँ सुख प्राप्त करता है। गँवाने वाले व्यक्ति के लिए वक्त ही मृत्यु है। वक्त के दुरुपयोग से जीवनी-शक्ति का दुरुपयोग होता है और मनुष्य जल्दी ही काल के गाल में समा जाता है। इसलिए हमें चाहिए कि समय का उपयोग सदैव सुन्दर कार्यों में करें और इस स्वर्ग तुल्य संसार में सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जिएँ।

समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा

समर्थ स्वामी रामदास वक्त के सदुपयोग के बारे में बड़े महत्त्वपूर्ण शब्द कहा करते थे—

एक सदैव पणाचैं लक्षण। रिकामा जाऊँ ने दो एक क्षण।। —(दासबोध 11/3/24)

अर्थात्—‘‘जो मनुष्य वक्त का सदुपयोग करता है, एक क्षण भी बरबाद नहीं करता, वह बड़ा सौभाग्यवान् होता है।’’ धन और रुपए-पैसे के मामले में यह कहा जाता है कि जिसका खर्च व्यवस्थित और मितव्ययी होता है, वही जीवन पर्यन्त धन का सुख लाभ प्राप्त करता है, उसके खजाने में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। ऐसे ही समय के प्रत्येक क्षण का उपयोग कर लेना भी मनुष्य की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। उन्नति की इच्छा रखने वालों को अपना समय कभी भी व्यर्थ न गँवाना चाहिए। समय के सदुपयोग करने में सदैव सावधान रहना चाहिए। आज जो समय गुजर गया, कल वह फिर आने वाला नहीं।

कार्य चाहे व्यावहारिक हो अथवा पारमार्थिक, जो समय सम्बन्धी विवेक और सावधानी नहीं रखते उन्हें इसके दुष्परिणाम जन्म-जन्मान्तरों तक भुगतने पड़ते हैं। आज अपने पास सभी परिस्थितियाँ हैं, साधन हैं, मनुष्य शरीर मिला है, बुद्धि और विचार की बहुमूल्य विरासत जो हमें मिली है वह यह समझ लेने के लिए है कि आपका समय सीमाओं से प्रतिबन्धित है। सृष्टि के दूसरे जीवों में से कई तो लम्बी आयु वाले भी होते हैं किन्तु मनुष्य की अवस्था अधिक से अधिक सौ वर्ष है। उसमें भी कितना समय अवस्था के अनुरूप व्यर्थ चला जाना है, फिर जो शेष बचता है उसका उपयोग यदि सांसारिक और आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं कर पाए तो कौन जाने यह परिस्थितियाँ फिर कभी मिलेंगी या नहीं।

आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले भी जब समय का ठीक-ठाक उपयोग नहीं कर पाते, इस सम्बन्ध में जागरूक और विवेकशील नहीं होते तो बड़ा आश्चर्य होता है। इससे अच्छे तो वे लोग ही हैं जो बेचारे किसी प्रकार जीवन-निर्वाह के साधन और आजीविका जुटाने में ही लगे रहते हैं। उन्हें यह पछतावा तो नहीं होता कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों का पूर्ण उपयोग नहीं कर सके। आजीविका भी अध्यात्म का एक अंग है, अतएव सम्पूर्ण न सही, कुछ अंशों में तो उन्होंने मानव-जीवन का सदुपयोग किया। हाथ पर हाथ रखकर आलस्य में समय गँवाने वाले सामाजिक जीवन में गड़बड़ी ही फैलाते हैं, भले ही वे कितने ही बुद्धिमान, भजनोपदेशक, कथावाचक, पण्डित या सन्त-संन्यासी ही क्यों न हों। समय का सदुपयोग करने वाला घसियारा, बेकार बैठे रहने वाले पण्डित से बढ़कर है, क्योंकि वह समाज को किसी न किसी रूप में समुन्नत बनाने का प्रयास करता ही है।

आलस में समय गँवाने वाले कुसंग और कुबुद्धि के द्वारा उल्टे रास्ते तैयार करते हैं। कहते हैं ‘‘खाली दिमाग शैतान का घर।’’ जब कुछ काम नहीं होता तो खुराफात ही सूझती है। जिन्हें किसी सत्कार्य या स्वाध्याय में रुचि नहीं होती, खाली समय में कुसंगति, दुर्व्यसन, ताश-तमाशे और तरह-तरह की बुराइयों में ही अपना समय बिताते हैं। समाज में अव्यवस्था का कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं होती, अधिकांश बुराइयाँ, कलह और झंझट बढ़ाने का श्रेय उन्हीं को है जो व्यर्थ में समय गँवाते रहते हैं। मनुष्य लम्बे समय तक निष्प्रयोजन खाली बैठा नहीं रह सकता, अतएव यदि वह भले काम नहीं करता तो बुराई करने में उसे देर न लगेगी। उसे अच्छा या बुरे, सच्चा हो चाहे काल्पनिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। इसलिए यदि उसे सही विषय न मिले तो वह बुराइयाँ ही ग्रहण करता है और उन्हें ही समाज में बिखेरता हुआ चला जाता है।

मनुष्य के अन्तःकरण में ही उसका देवत्व और असुरत्व विद्यमान है। जब तक हमारा देवता जागृत रहता है और हम विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहते हैं, तब तक आन्तरिक असुरता भी दबी हुई पड़ी रहती है, पर यह प्रसुप्त वासनाएँ भी अवकाश के लिए चुपचाप अन्तर्मन में जगती रहती हैं, समय पाते ही देवत्व पर प्रहार कर बैठती हैं?।

जब यह दिखाई दे कि अब अपने पास कोई काम शेष नहीं रहा तो मनुष्य अपने निवास के आस-पास की सफाई, वस्त्रों की हिफाजत, घर की मरम्मत, खेतों की देख-रेख, लेखन, ज्ञान विषयक चर्चा या किसी जीवनोपयोगी साहित्य का स्वाध्याय ही करने लग जाए। इससे टूटी-फूटी वस्तुओं की साज-सम्हाल, स्वास्थ्य-रक्षा और ज्ञान की वृद्धि ही होगी। समय का मूल्यांकन केवल रुपए-पैसे से ही नहीं हो सकता। जीवन में और भी अनेकों पारमार्थिक व्यवसाय हैं। उन्हें भी देखना और ज्ञान प्राप्त करना हमारा धर्म होना चाहिए। सत्कार्यों में लगाए गए समय का परिणाम सदैव सुखदायक ही होता है।

लगातार काम न करने का तथा किसी व्यवसाय में अभिरुचि न होने का कारण यह है कि एक-सी स्थिति में रहते हुए मनुष्य को उकताहट पैदा होती है। यह स्वाभाविक भी है। मनोरंजन की आवश्यकता सभी को होती है। सन्त-महात्मा भी प्रकृति-दर्शन और तीर्थयात्रा आदि के रूप में मनोरंजन प्राप्त किया करते हैं। यह उकताहट यदि सम्हाली न जाए तो किसी व्यसन के रूप में ही फूटती है। व्यसन की शुरुआत खाली समय में कुसंगति के कारण ही होती है।

आज-कल इस प्रकार के साधनों की किसी प्रकार की कमी नहीं है। निरुत्साह और मानसिक थकावट दूर करने के लिए विविध मनोरंजन के साधन आज बहुत बढ़ गए हैं किन्तु समय के सदुपयोग और जीवन की सार्थकता की दृष्टि से, इनमें से उपयोगी बहुत कम ही दिखाई देते हैं। अधिकांश तो धन-साध्य और मनुष्य का नैतिक पतन करने वाले ही हैं। इसलिए यह भी आवश्यक हो गया है कि जब कुछ समय श्रम से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए निकालें तो यह भली-भाँति विचार कर लें कि यह जो समय उक्त कार्य में लगाने जा रहे हैं, उसका आध्यात्मिक उत्थान और आत्म-विकास के लिए क्या सदुपयोग हो रहा है? मनोरंजन केवल प्रसुप्त वासना की पूर्ति के लिए न हो वरन् उसमें भी आत्म-कल्याण की भावना सन्निहित बनी रहे तो उस समय का उपयोग सार्थक माना जा सकता है।

फुरसत और खाली समय का उपयोग अच्छे-बुरे किसी भी काम में हो सकता है। नई-नई विद्या, कला, लेखन, शास्त्रार्थ के द्वारा नई सूझ और आध्यात्मिक बुद्धि जागृत होती है। इससे अपना व समाज दोनों का ही कल्याण होता है। सत्कर्म में लगाए हुए समय से मनुष्य का जीवन सुखी, समुन्नत तथा उदात्त बनता है। जापान की उन्नति का प्रमुख कारण फुरसत के समय का सदुपयोग ही है। वहाँ सरकारी काम के घण्टों के बाद का समय लोग कुटीर उद्योगों में लगाते हैं। छोटे-मोटे खिलौने-घड़ियाँ आदि बनाते हैं, इससे वहाँ की राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ी है, लोगों की जीवन सुखी हुआ है और नैतिक सदाचार का प्रसार हुआ है। खाली समय का उपयोग जिस प्रकार के कार्यों में करेंगे, वैसी ही उन्नति अवश्य होगी।

समय जरा भी नष्ट मत होने दीजिए—

संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसकी प्राप्ति मनुष्य के लिए असम्भव हो। प्रयत्न और पुरुषार्थ से सभी कुछ पाया जा सकता है, लेकिन एक ऐसी भी चीज है जिसे एक बार खोने के बाद कभी नहीं पाया जा सकता और वह है—समय। एक बार हाथ से निकला हुआ समय फिर कभी हाथ नहीं आता। कहावत है—‘‘बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द कभी वापस नहीं बुलाए जा सकते।’’ समय परमात्मा से भी महान् है। भक्ति साधना द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कई बार किया जा सकता है, लेकिन गुजरा हुआ समय पुनः नहीं मिलता।

समय ही जीवन की परिभाषा है, क्योंकि समय से ही जीवन बनता है। समय का सदुपयोग करना जीवन का उपयोग करना है। समय का दुरुपयोग करना जीवन काे नष्ट करना है। समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह प्रतिक्षण मिनट, घण्टे, दिन, महीने, वर्षों के रूप में निरन्तर अज्ञात दिशा को जाकर विलीन होता रहता है। समय की अजस्र धारा निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और फिर शून्य में विलीन हो जाती है। फ्रैंकलिन ने कहा है—‘‘समय बरबाद मत करो क्योंकि समय से ही जीवन बना है।’’ निस्सन्देह वक्त और सागर की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं। हमारा कर्तव्य है कि हम समय का पूरा पूरा सदुपयोग करें।

सचमुच जो व्यक्ति अपना तनिक-सा भी समय व्यर्थ नष्ट करते हैं, उन्हें समय अनेकों सफलताओं से वंचित कर देता है। नेपोलियन ने आस्ट्रेलिया को इसलिए हरा दिया कि वहाँ के सैनिकों ने पाँच मिनट का विलम्ब कर दिया उसका सामना करने में। लेकिन वही नेपोलियन कुछ ही मिनटों में बन्दी बना लिया गया क्योंकि उसका एक सेनापति कुछ ही मिनट विलम्ब से आया। वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन की पराजय इसी कारण से हुई। समय की उपेक्षा करने पर देखते-देखते विजय का पासा पराजय में पलट जाता है, लाभ हानि में बदल जाता है।

संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी महानता का एक ही आधार स्तम्भ है कि उन्होंने अपने समय का पूरा-पूरा उपयोग किया। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। जिस समय लोग मनोरंजन, खेल-तमाशों में मशगूल रहते हैं, व्यर्थ आलस्य प्रमाद में पड़े रहते हैं, उस समय महान् व्यक्ति महत्त्वपूर्ण कार्यों का सृजन करते रहते हैं। ऐसा एक भी महापुरुष नहीं जिसने अपने समय को नष्ट किया हो और वह महान् बन गया हो। समय बहुत बड़ा धन है। भौतिक धन से भी अधिक मूल्यवान्। जो इसे भली प्रकार उपयोग में लाता है, वह सभी तरह के लाभ प्राप्त कर सकता है। छोटे से जीवन में भी बहुत बड़ी सफलताएँ प्राप्त कर लेता है। वह छोटी-सी उम्र में ही दूसरों से बहुत आगे बढ़ जाता है।

समय जितना कीमती और फिर न मिलने वाला तत्त्व है उतना उसका महत्त्व प्रायः हम लोग नहीं समझते। हममें से बहुत-से लोग अपने समय का बहुत ही कम सदुपयोग करते हैं, उसको व्यर्थ की बातों में नष्ट करते रहते हैं। आश्चर्य है समय ही ऐसा पदार्थ है जो एक निश्चित मात्रा में मनुष्य को मिलता है, लेकिन उसका उतना ही अधिक अपव्यय भी होता है। हममें से कितने लोग ऐसा सोचते हैं कि हमारा कितना समय आवश्यक और उपयोगी कार्यों में लगता है और कितना व्यर्थ के कामों में, सैर-सपाटे, मित्रों में गपशप, खेल-तमाशे, मनोरंजन, आलस्य, प्रमाद आदि में हम कितना समय नष्ट करते हैं? व्यर्थ की बकवास, अनावश्यक कार्यों में हम जितना समय नष्ट करते हैं यदि उसका लेखा-जोखा लें तो प्रतीत होगा कि अपने जीवन धन का एक बहुत बड़ा भाग हम अपने आप ही व्यर्थ नष्ट कर डालते हैं समय के रूप में। काश एक-एक मिनट, घण्टे, दिन का हम उपयोग करें तो कोई कारण नहीं कि हम जीवन में महान् सफलताएँ प्राप्त न करें।

समय की बरबादी का सबसे पहला शत्रु है किसी काम को आगे के लिए टाल देना। ‘आज नहीं कल करेंगे।’ इस कल के बहाने हमारा बहुत-सा वक्त नष्ट हो जाता है। स्वेटमार्डेन ने लिखा है—‘इतिहास के पृष्ठों में कल की धारा पर कितने प्रतिभावानों का गला कट गया, कितनों की योजनाएँ अधूरी रह गईं, कितनों के निश्चय बस यों ही रह गए, कितने पछताते, हाथ मलते रह गए! कल असमर्थता और आलस्य का द्योतक है।’

इस कल से बचने के लिए ही महात्मा कबीर ने चेतावनी देते हुए कहा है—

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब।।

कल पर अपने कोई भी काम न टालें। जिन्हें आज करना है उन्हें आज ही पूरा करलें। स्मरण रखिए प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है, जब वह काम आपके सामने पड़ा है। अवसर निकल जाने पर काम का महत्त्व ही समाप्त हो जाता है तथा बोझ भी बढ़ता जाता है। स्वेटमार्डेन ने लिखा है—‘बहुत से लोगों ने अपना काम कल पर छोड़ा और वे संसार में पीछे रह गए, अन्य लोगों द्वारा प्रतिद्वन्दिता में हरा दिए गए।’

समय का ठीक-ठीक लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि एक समय एक ही काम किया जाए। जो व्यक्ति एक समय में अनेकों काम करना चाहते हैं, उनका कोई भी काम पूरा नहीं होता और उनका अमूल्य समय व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।

जो काम स्वयं करना है, उसे स्वयं ही पूरा करें। अपना काम दूसरों पर छोड़ना भी एक तरह से दूसरे दिन काम टालने के समान ही है। ऐसे व्यक्ति का अवसर भी निकल जाता है और उसका काम भी पूरा नहीं होता।

जरा विचार कीजिए, आपको अमुक दिन अमुक गाड़ी से बम्बई जाना है। अगर आप गाड़ी के सीटी देने के एक मिनट बाद स्टेशन पहुँचे तो फिर आपको वह गाड़ी, वह दिन, वह समय कभी नहीं मिलेगा। निश्चित समय निकल जाने के बाद आप किसी दफ्तर में जाएँ तो निश्चित है आपका काम नहीं होगा। आपको स्मरण होगा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, जार्ज वाशिंगटन आदि को सड़क पर से गुजरते देखकर लोग अपनी घड़ियाँ मिलाते थे। अपने काम और समय का इस तरह मेल रखें कि उसमें एक मिनट का भी अन्तर न आए। तभी आप अपने समय का पूरा-पूरा सदुपयोग कर सकेंगे।

आलस्य समय का सबसे बड़ा शत्रु है। यह कई रूपों में मनुष्य पर अपना अधिकार जमा लेता है। कई बार कुछ काम किया कि विश्राम के बहाने हम अपने समय को बरबाद करने लगते हैं। वैसे बीमारी, तकलीफ आदि में विश्राम करना तो आलस्य नहीं है। थक जाने पर नींद के लिए विश्राम करना भी बुरा नहीं है। थकावट हो, नींद आए तो तुरन्त सो जाएँ लेकिन आँख खुलने पर उठ पड़ें, चारपाई न तोड़ें। अभी उठते हैं, अभी उठते हैं, कहते रहें तो यही आलस्य का मन्त्र है। आँखें खुलीं कि तुरन्त अपने काम में लग जाएँ।

रस्किन के शब्दों में ‘‘जवानी का समय तो विश्राम के नाम पर नष्ट करना ही घोर मूर्खता है क्योंकि यही वह समय है जिसमें मनुष्य अपने जीवन का, अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जिस तरह लोहा ठण्डा पड़ जाने पर घन पटकने से कोई लाभ नहीं, उसी तरह अवसर निकल जाने पर मनुष्य का प्रयत्न भी व्यर्थ चला जाता है।’’ विश्राम करें, अवश्य करें। अधिक कार्यक्षमता प्राप्त करने के लिए विश्राम आवश्यक है, लेकिन उसका भी समय निश्चित कर लेना चाहिए और विश्राम के लिए ही लेटना चाहिए।

समय बड़ा मूल्यवान् है। उसे बड़ी कंजूसी से व्यय करना चाहिए। जितना अपने समय-धन को बचाकर उसे आवश्यक उपयोगी कार्यों में लगावेंगे उतनी ही अपने व्यक्तित्व की महत्ता एवं कीमत बढ़ती जायगी। नियमित समय पर काम करने का अभ्यास डालें। इसकी आदत पड़ जाने पर आपको स्वयं ही इसमें बड़ा आनन्द आने लगेगा।

यदि मनुष्य प्रतिदिन किसी काम विशेष में थोड़ा-थोड़ा समय भी लगाए तो वह उससे महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त कर सकता है। महामनीषी स्वेटमार्डेन ने कहा है—जीवन भर एक विषय में नियमित रूप से प्रतिदिन एक घण्टा लगाने वाला व्यक्ति उस विषय का उद्भट विद्वान बन सकता है। जरा अनुमान लगाइए कोई भी प्रतिदिन एक घण्टे में बीस पृष्ठ पढ़ता है तो साल में 7300 पृष्ठ पढ़ डालेगा। अर्थ हुआ 100 पृष्ठ की 73 पुस्तकें वह एक साल में पढ़ लेगा। दस वर्ष में 730 पुस्तकें पढ़ने वाले व्यक्ति के ज्ञान का विचार-स्तर कैसा होगा? इसके बारे में पाठक स्वयं ही अन्दाज लगा सकते हैं। अतः समय को मामूली न समझें। नियमित रूप से कोई भी काम आप करेंगे तो धीरे-धीरे उसमें बहुत बड़ी योग्यता हासिल कर लेंगे, यह निश्चित है।

समय की बर्बादी आज-कल मनोरंजन के नाम पर भी बहुत होती है। रेडियो, सिनेमा, खेल-तमाशे, ताश, शतरंज आदि में हम नित्य ही अपना बहुत-सा समय बर्बाद करते रहते हैं। महात्मा गाँधी ने एक बार अपने पुत्र मणिलाल को पत्र में लिखा था—‘‘खेल-कूद मनोरंजन का समय बारह वर्ष की उम्र तक है।’’ आज हम इसमें अपना कितना वक्त खर्च करते हैं, यह स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं। मनोरंजन खेल आदि को जीवन में रखा ही जाए तो उसके लिए भी एक नियत समय रखना चाहिए।

अपने आस-पास का वातावरण ऐसा रखना चाहिए कि अपना समय किसी कारण बर्बाद न हो। वक्त बर्बाद करने वाले दोस्तों से दूर की ‘नमस्ते’ रखनी चाहिए। निठल्ले लोग ही अक्सर दूसरे का वक्त बर्बाद करने जा पहुँचते हैं। इन्हें दोस्त नहीं, दुश्मन मानना ही उचित है।

स्मरण रखिए समय बहुत मूल्यवान् वस्तु है। इससे आप जितना लाभ उठा सकते हैं, उठाएँ। आप वक्त को नष्ट करेंगे तो वक्त भी आपको नष्ट कर देगा। वक्त के सदुपयोग पर ही आप कुछ बन सकते हैं।

समय के सदुपयोग का महत्त्व समझिए

समय संसार की सबसे मूल्यवान् सम्पदा है। विद्वानों एवं महापुरुषों ने वक्त को सारी विभूतियों का कारणभूत हेतु माना है। समय का सदुपयोग करने वाले व्यक्ति कभी भी निर्धन अथवा दुःखी नहीं रह सकते। कहने को कहा जा सकता है कि श्रम से ही सम्पत्ति की उपलब्धि होती है, किन्तु श्रम का अर्थ भी वक्त का सदुपयोग ही है। असमय का श्रम पारिश्रमिक से अधिक थकान लाया करता है।

मनुष्य कितना ही परिश्रमी क्यों न हो यदि वह अपने परिश्रम के साथ ठीक समय का सामंजस्य नहीं करेगा तो निश्चय ही इसका श्रम या तो निष्फल चला जाएगा अथवा अपेक्षित फल न ला सकेगा। किसान परिश्रमी है, किन्तु यदि वह अपने श्रम को समय पर काम में नहीं लाता तो वह अपने परिश्रम का पूरा लाभ नहीं उठा सकता। वक्त पर न जोत कर असमय पर जोता हुआ खेत अपनी उर्वरता को प्रकट नहीं कर पाता। असमय बोया हुआ बीज बेकार चला जाता है, वक्त पर न काटी गई फसल नष्ट हो जाती है। संसार में प्रत्येक काम के लिए निश्चित वक्त पर न किया हुआ काम कितना भी परिश्रम करने पर भी सफल नहीं होता।

प्रकृति का प्रत्येक कार्य एक निश्चित वक्त पर होता है। वक्त पर ग्रीष्म तपता है, वक्त पर पानी बरसता है, वक्त पर ही शीत आता है। वक्त पर ही शिशिर होता और वक्त पर ही बसन्त आकर वनस्पतियों को फूलों से सजा देता है। प्रकृति के इस ऋतु-क्रम में जरा-सा भी व्यवधान पड़ जाने से न जाने कितने प्रकार के रोगों एवं इति-भीति का प्रकोप हो जाता है। चाँद-सूरज, ग्रह-नक्षत्र सब समय पर ही उदय-अस्त होते वक्त के अनुसार ही अपनी परिधि एवं कक्ष में परिभ्रमण किया करते हैं। इनकी सामयिकता में जरा-सा व्यवधान पड़ने से सृष्टि में अनेक उपद्रव खड़े हो जाते हैं और प्रलय के दृश्य दीखने लगते हैं, समय पालन ईश्वरीय नियमों में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख नियम है।

जीवन का हर क्षण एक उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान् मोड़ का समय हो सकती है। मनुष्य यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि जिस वक्त, जिस क्षण और जिस पल को यों ही व्यर्थ में खो रहा है, वह ही क्षण—वह ही वक्त—उसके भाग्योदय का वक्त नहीं है? क्या पता जिस क्षण को हम व्यर्थ समझकर बरबाद कर रहे हैं, वह ही हमारे लिए अपनी झोली में सुन्दर सौभाग्य की सफलता लाया हो।

सबके जीवन में एक परिवर्तनकारी वक्त आया करता है, किन्तु मनुष्य उसके आगमन से अनभिज्ञ रहा करता है। इसलिए हर बुद्धिमान मनुष्य हर क्षण को, बहूमूल्य समझकर व्यर्थ नहीं जाने देता। कोई भी क्षण व्यर्थ न जाने देने से निश्चय ही वह क्षण हाथ से छूटकर नहीं जा सकता जो जीवन में वांछित परिवर्तन का संदेशवाहक होगा। सिद्धि की अनिश्चित घड़ी से अनभिज्ञ साधक जिस प्रकार हर समय लौ लगाए रहने से उसको पकड़ लेता है, ठीक उसी प्रकार हर क्षण को सौभाग्य के द्वार खोल देने वाला समझकर महत्त्वाकांक्षी कर्मवीर जीवन के एक छोटे-से भी क्षण की उपेक्षा नहीं करता और निश्चित ही सौभाग्य का अधिकारी बनता है।

कोई भी दीर्घसूत्री व्यक्ति संसार में आज तक सफल होते देखा, सुना नहीं गया है। जीवन में उन्नति करने और सफलता पाने वाले व्यक्तियों की जीवनगाथा का निरीक्षण करने पर निश्चय ही उनके उन गुणों में समय के पालन एवं सदुपयोग को प्रमुख स्थान मिलेगा जो जीवन की उन्नति के लिए अपेक्षित होते हैं।

हर मनुष्य को वक्त का, छोटे से छोटे क्षण का मूल्य एवं महत्त्व समझना चाहिए। जीवन का वक्त सीमित है और काम बहुत है। आने से लेकर परिवार, समाज एवं राष्ट्र के दायित्वपूर्ण कर्तव्यों के साथ मुक्ति की साधना तक कामों की एक लम्बी शृंखला चली गई है। कर्तव्यों की इस अनिवार्य परम्परा को पूरा किए बिना मनुष्य का कल्याण नहीं। इसी कर्म-क्रम को इसी एक जीवन के सीमित वक्त से ही पूरा कर डालना है क्योंकि आत्मा की मुक्ति मानव-जीवन के अतिरिक्त अन्य किसी जीवन में नहीं हो सकती और मुक्ति का प्रयास तभी सफल हो सकता है, जब वह उसके सहायक पूर्व प्रयासों को पूरा करता है। अस्तु जीवन के परम लक्ष्य मुक्ति को पाने के लिए उसकी साधना के अतिरिक्त सारे कर्त्तव्य-क्रम को इसी जीवन के सीमित वक्त में ही पूरा करना होगा।

इतने विशाल कर्तव्य-क्रम को मनुष्य पूरा तब ही कर सकता है जब वह जीवन के एक-एक क्षण, एक-एक पल और एक-एक निमेष को सावधानी के साथ उपयोगी एवं उपयुक्त दिशा में प्रयुक्त करे। नहीं तो किसने देखा है कि उसके जीवन का अन्तिम छोर कितनी दूरी पर ठहरा हुआ है। जीवन की अवधि सीमित होने के साथ अनिश्चित एवं अज्ञात भी है। जो क्षण हमारे पास है, हृदय के जिस स्पन्दन में गति है, वही हमारा है। श्वाँस का एक आगमन ही हमारा है, बाकी सब पराए हैं, न जाने दूसरे क्षण हमारे बन पायेंगे या नहीं। अतएव हर बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि जो क्षण, जो श्वाँस उसके अधिकार में है उसे भगवान की महती कृपा और जीवन का उच्चतम अन्तिम अवसर समझकर इस सावधानी एवं संलग्नता से उपयोग करे कि मानो इसी एक क्षण में सब कुछ दक्षता है। अपने वर्तमान क्षण को छोड़कर भविष्य की युगीन अवधि पर विश्वास करना विवेक का बहुत बड़ा अपमान है। जिस भविष्य पर आप अपने जीवन विकास के कार्यों, अपने विकास कर्तव्यों को स्थगित करने की सोच रहे हैं वह आ ही जाएगा, यह जीवन निश्चितता-अनिश्चितता के बीच निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

कर्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अन्ध-विश्वास है। उसकी प्रतीक्षा करने वाले नासमझ इस दुनिया में पश्चाताप करते हुए ही विदा होते हैं। आने वाला कल ऐसा आकाश कुसुम है जो सुना तो गया पर पाया कभी नहीं गया। किन्तु दुर्भाग्य है कि हर स्थगनशील व्यक्ति सदा ही उसी कल पर विश्वास किए हुए उपस्थित वर्तमान में सोता रहता है और जब उसका प्रतीक्षित कल कभी नहीं आता, तब उसके पास उस बीते हुए कल के लिए रोने-पछताने के सिवाय कुछ नहीं रह जाता जिसकी कि उसने वर्तमान में अवहेलना की थी, और जो कि किसी भी मूल्य पर वापस नहीं लाया जा सकता।

समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिए कि वे अपने किसी भी कर्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिए कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो-गुना हो जाएगा जो निश्चय ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का कल पर और कल का परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जाएगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। जिस स्थगनशील स्वभाव तथा दीर्घसूत्री मनोवृत्ति ने आज का काम आज नहीं करने दिया, वह कल कब करने देगी ऐसा नहीं माना जा सकता। स्थगन-स्थगन को और क्रिया-क्रिया को प्रोत्साहित करती है, यह प्रकृति का एक निश्चित नियम है।

बासी काम, बासी भोजन की तरह ही अरुचिकर हो जाया करता है। फिर न तो उसे करने की इच्छा होती है और करने पर सुचारू रूप से नहीं हो पाता। कल के काम का दबाव बासी काम को एक बेगार बना देगा जो रो-झींककर ही किया जा सकेगा। ऐसा होने से अभ्यास बिगड़ता है और उनका विकृत प्रभाव कल के नए काम पर भी पड़ता है। इस प्रकार स्थगनशीलता कर्तव्यों में मनुष्य की रुचि तथा दक्षता को नष्ट कर देती है। इन दोनों विशेषताओं से रहित कर्तव्य परिश्रम का भरपूर मूल्य पाकर भी अपेक्षित पुरस्कार एवं पारितोषक नहीं ला पाते।

जीवन में सफलता के लिए जहाँ परिश्रम एवं पुरुषार्थ की अनिवार्य आवश्यकता है, वहाँ सामयिकता का सामंजस्य उससे भी अधिक आवश्यक है। जिस वक्त को बरबाद कर दिया जाता है उस वक्त में किया जाने के लिए निर्धारित श्रम भी निष्क्रिय रहकर नष्ट हो जाता है। श्रम तभी सम्पत्ति बनता है, जब वह वक्त से संयोजित कर दिया जाता है और वक्त तब ही सम्पदा के रूप में सम्पन्नता एवं सफलता ला सकता है, जब उसका श्रम के साथ सदुपयोग किया जाता है। समय का सदुपयोग करने वाले स्वभावतः परिश्रमी बन जाते हैं जबकि असामयिक परिश्रमी, आलसी की कोटि का ही व्यक्ति होता है। वक्त का सदुपयोग ही वास्तविक श्रम है और वास्तविक श्रम अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का सम्वाहन पुरुषार्थ एवं परमार्थ है।

समय पर कार्य सफलता का सोपान

अब्राहम लिंकन जब प्रात:काल टहलने जाते तो लोग अपनी घड़ियाँ मिला लेते थे कि समय क्या है? उनका समय, नियम और क्रम पूर्णतया व्यवस्थित था, उसमें कभी यत्किंचित भी अंतर नहीं आता था। इसलिए लोग उनके पैरों की एक विशेष प्रकार की आवाज से समझ लेते थे कि लिंकन ही जा रहा है और बिस्तर पर पड़े-पड़े ही घड़ियों में यदि कुछ फर्क होता तो उसे ठीक कर लेते थे।

घड़ियाँ सभी के पास होती हैं पर उनसे समय पर उठने और काम करने की समुचित प्रेरणा किसी-किसी को ही मिलती है, पर मनुष्य के भीतर एक ऐसा स्वसंचालित क्रोमोमीटर है कि यदि उसे थोड़ा सजीव और सक्रिय बना लिया जाए तो न केवल सही समय बता देता है वरन् ठीक समय पर निर्धारित कार्य करने के लिए भी बाध्य कर देता है। लिंकन की असली घडी यही सक्रियता थी। यों उनके घर कीमती घड़ियों की भी कमी नहीं थी।

अन्य जीव-जंतु तो इसी आंतरिक घड़ी के आधार पर अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं। मुर्गा आमतौर से लगभग प्रात: ४ बजे बाँग देता है। उसके पास मशीनी अलार्म घड़ी भले ही न हो, पर भीतर वह मौजूद है, साथ ही ऐसा भी है जो न कभी खराब होती है और न मरम्मत को भेजनी पड़ती है। मुर्गे का आंतरिक क्रोमोमीटर समय की जानकारी उसे करा देता है और बाँग लगाने की ड्यूटी पूरी करने के लिए विवश कर देता है।

पालतू तोते या कुत्ते को यदि कुछ दिनों नियत समय पर भोजन दिया जाता रहे तो वह उसके अभ्यस्त हो जाएँगे और यदि किसी दिन उन्हें उस समय भोजन न मिले तो अपनी माँग प्रस्तुत करते हुए चिल्लाने या उछल-कूद करने में लग जाएँगे।

घनघोर घटाएँ छाई रहने पर भी पक्षी प्रात:काल होते ही चहचहाने लगते हैं और सूर्य अस्त होने का समय आते ही अपने घोंसले में सोने के लिए चले जाते हैं। जंगलों में सियारों के चिल्लाने का एक नियत निर्धारित समय होता है। वे हर रात को उसी समय बोलते हैं।

चिड़ियाँ दाना चुगने उड़ जाती हैं, पर साथ ही उन्हें यह भी याद रहता है कि घोंसले के बच्चों को किस समय भोजन देना है? वे चोंच में मुलायम बीज या कीड़े लेकर ठीक उसी समय आहार की प्रतीक्षा करते हैं। समय से कुछ मिनट पहले तक वे घोंसलों में ऐसे ही पड़े सुस्ताते रहते हैं।

दैनिक घड़ी ही नहीं ऋतुओं और महीनों की स्थिति भी भीतरी अलार्म-टाइमपीस निर्धारित उत्साह उत्पन्न करने और नियत काम पर लगने की प्रेरणा करती है। प्रातः सभी जीव-जंतुओं के गर्भाधान काल निर्धारित हैं। मादाएँ लगभग उन्हीं दिनों उत्तेजित होती हैं और एक जाति का प्रजननकाल लगभग एक ही काल में होता है। मछलियों से लेकर छोटे कीड़े-मकोड़ों तक यही व्यवस्था चलती है। पशु-पक्षियों में तो यह काल निर्धारित-सा ही रहता है। उन पालतू पशुओं की बात अलग है, जिन्हें उनके मालिकों ने अपनी प्रकृति के विपरीत कार्य करने के लिए बाध्य किया है। पक्षियों को घोंसले बनाने में, मकड़ी को जाला तानने में एक नियत अवधि पर संलग्न देखा जाता है।

सैलानी पक्षी प्रायः वर्ष में एक समय ही अपनी दूरवर्ती यात्राएँ आरंभ करते हैं और अभीष्ट अवधि पूरी होते ही इस तरह वापस लौटते हैं मानो किसी ने उनका प्रोग्राम कलैंडर के आधार पर नियत निर्धारित करके रखा हो।

मनुष्य शरीर और मन की भी यही स्थिति है, यदि उसकी क्रम व्यवस्था रोज-रोज बदली-बिगाड़ी न जाती रहे तो एक नियत ढर्रा जम जाता है और वही अपने ढर्रे पर ठीक तरह चलता रहता है। भूख, प्यास, शौच, निद्रा, जागृति आदि की इच्छाएँ प्रायः ठीक समय पर उठती हैं। इतना ही नहीं भीतरी अवयव उसके लिए सावधानी के साथ अपनी तैयारी में जुट जाते हैं। खाने का समय होते ही मुँह के, पेट के, आँतों के, यकृत के रासायनिक स्राव अनायास ही स्रवित होने लगते हैं। अपनी ड्यूटी को यथासमय निबाहने में वे सामर्थ्य भर व्यतिरेक नहीं होने देते। चाय, सिगरेट पान आदि की तलब अपने समय पर ही उठा करती है।

यदि हम दिनचर्या नियत निर्धारित कर लें और उस पर सावधानी के साथ चलते रहें तो देखा जाएगा कि शरीर ही नहीं, मन भी उसके लिए पूरी तरह तैयार रहता है। पूजा-उपासना, साहित्य-सृजन, व्यायाम आदि के लिए यदि समय निर्धारित हो तो देखा जाएगा कि सारा कार्य बड़ी सुंदरता और सफलतापूर्वक संपन्न होता चला जाता है। इसके विपरीत यदि आए दिन दिनचर्या में उलट-पलट की जाती रहे तो अंतरंग की स्वचालित प्रक्रिया अस्त-व्यस्त एवं अभ्यस्त हो जाएगी और हर कार्य शरीर से बलात्कारपूर्वक ही कराया जा सकेगा और वह औंधा-सीधा ही होगा, उसकी सर्वांग पूर्णता की संभावना आधी-अधूरी ही रह जाएगी।

इच्छा, श्रम और व्यवस्थापूर्वक हम कई कार्य करते हैं। यह बाह्य व्यवस्था कार्यों में जितनी सफलता उत्पन्न करती है, उससे अधिक अंतरंग की स्वसंचालित कार्यपद्धति का योगदान होता है। यदि वस्तुतः हम किसी कार्य को अधिक सुंदर, सुव्यवस्थित और सफल देखना चाहते हैं तो नियत समय पर निर्धारित कार्यक्रम में संलग्न होने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि वह व्यवस्था अभ्यास के रूप में परिणत हो सके। हमारे खाने और सोने का समय निर्धारित होना चाहिए। इसमें अव्यवस्था फैलाते रहना अपने अच्छे-भले स्वास्थ्य की जड़ें खोखली करने के समान है। यदि भोजन नियत समय पर नहीं किया जा सका तो उत्तम यही है कि उस पारी की नागा कर दी जाए और दूसरी पारी का समय जब आए, तब कुछ खाया जाए। समय-कुसमय खाने की अपेक्षा तो एक समय बिना खाए रह जाना अधिक श्रेयस्कर है। कई व्यक्ति बहुत रात गए घर लौटते हैं और एक-दो पहर बिताकर तब कहीं खाना खाते हैं। इसमें व्यवस्था नहीं अव्यवस्था और प्रमाद ही मुख्य कारण होता है। यदि घर लौटना न हो सका तो जहाँ कहीं भी भोजन का समय हो जाए, वहीं भोजन का प्रबंध कर लेना चाहिए। इससे न केवल अपने स्वास्थ्य का—वरन पत्नी तथा उन लोगों का भी आरोग्य नष्ट होने से बचाया जा सकता है जो देर से आने वाले के इंतजार में स्वयं भूखे बैठे रहते हैं।

जीवधारियों की प्रवृत्ति में एक अत्यंत रहस्यमय और अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया नियत समय पर निर्धारित कार्य करते रहने की है। जो उसे जानते एवं मानते हैं, वे अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर बिना अनावश्यक दबाव डाले महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करते चले जाते हैं और सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं।

समय संयम सफलता की कुंजी है

अनेक लोग ऐसे होते हैं जो वक्त का महत्त्व तो स्वीकार कर लेते हैं किंतु उसके पालन पर ध्यान नहीं देते। समय खराब करने पर भी वे कोई काम निर्धारित वक्त पर करना आवश्यक नहीं समझते। इस वक्त इस काम पर जुटे हुए हैं, तो उस वक्त उस काम पर। दूसरे दिन उनका यह क्रम टूट जाता है और वे इस वक्त उस काम को और उस वक्त इस काम को करने लग जाते हैं।

इस प्रकार की अनियमितता बहुधा विद्यार्थी, अध्ययनशील तथा लिखा-पढ़ी का काम करने वाले भी किया करते हैं। अशिक्षित, अज्ञानी जीवन में अव्यवस्था हो तो एक बात भी है पर शिक्षा के प्रकाश में आगे बढ़ने वाले को अव्यवस्थित होना वस्तुतः खेदजनक है। अनियमित विद्यार्थी कभी प्रभात में गणित करते हैं, तो कभी अंग्रेजी पढ़ते हैं। इसी प्रकार अंग्रेजी व हिन्दी विषय कभी प्रातः व सायं के वक्त घेरकर गणित को दोपहर के लिए रख देते हैं। कभी भूगोल के समय में इतिहास और इतिहास के समय में नागरिक शास्त्र लेकर बैठ जाते हैं। इसके अतिरिक्त उनके लेखन एवं पठन का समय तो परस्पर बदलता ही रहता है, पढ़ने तथा खेलने व मनोरंजन के समय भी बदलते रहते हैं। इस प्रकार वे पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने में समय तो देते हैं किन्तु उनके समय में न तो कोई क्रम होता है और न नियमितता।

कभी-कभी उनका यह समय घटता-बढ़ता भी रहता है। जिस दिन गणित में अधिक मन लग गया तो अंग्रेजी का समय भी उसे दे दिया। कभी रुचि की अधिकता से इंग्लिश गणित का समय ले जाती है। इस प्रकार वे अपना अध्ययन कार्य तो करते रहते हैं किन्तु किसी निश्चित समय-सारिणी के अनुसार विषयों में गति, योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार ही समय देकर बनाई गई समय-सारिणी का पालन करने वाले विद्यार्थी अनियमित विद्यार्थियों से कहीं अधिक श्रम एवं समय के सदुपयोग का लाभ उठाते हैं।

इसी प्रकार बहुत-से अध्ययनशील व्यक्ति अपना समय तो खराब नहीं करते किन्तु उनका अध्ययन-क्रम निश्चित एवं निर्धारित नहीं होता। वे कभी किसी एक विषय के ग्रन्थ को पढ़ते और पूरा किए बिना ही दूसरा शुरू कर देते हैं। कभी-कभी एक ग्रन्थ को कल के लिए अधूरा छोड़कर उसके लिए निश्चित समय पर दूसरा ग्रन्थ प्रारम्भ कर देते हैं। बहुधा यह भी देखने में आता है कि अनियमित अध्ययनशील पुस्तकों के समय में समाचार-पत्र और समाचार-पत्रों के समय में साहित्यिक पत्रिकाएँ पढ़ रहे होते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि वे अपना समय बिना पढ़े व्यय नहीं करते किन्तु उस कार्य में क्रम को स्थान नहीं देते। इस कमी के कारण अध्ययन से जितना लाभ होना चाहिए, उतना नहीं हो पाता।

कार्यालयों में लिखा-पढ़ी का काम करने वाले अनेक परिश्रमी बाबू लोग अपनी इसी असामयिकता के कारण अच्छे कर्मचारियों की सूची में नहीं आ पाते। वे पूरे समय काम में जुटे रहते हैं और कभी-कभी निर्धारित समय से अधिक समय तक भी। तब भी वे अपने उच्च अधिकारी की प्रियपात्रों की सूची में नहीं आ पाते। क्रम के साथ काम तथा फाइलों को उपयुक्त समय में न देने से उनका आवश्यक काम कभी-कभी पड़ा रहता है और गौण काम पूरा हो जाता है। इसी अव्यवस्था के कारण वे बहुत से तात्कालिक कामों को भूल जाते हैं, इसलिए उनकी कार्य कुशलता के अंक कम हो जाते हैं। पत्र लिखने के समय फाइलों का अध्ययन और फाइल पढ़ने के समय टाइप पर बैठ जाने से न तो उनका कोई काम समय पर हो पाता है और न कुशलतापूर्वक। इस प्रकार असमय पूरा हुआ उनका काम अधूरे की श्रेणी में ही गिना जाता है। क्रम एवं सामयिकता से करने पर काम भी कुशलतापूर्वक होता है और आवश्यकता से अधिक समय भी नहीं लगता।

इस प्रकार के अव्यवस्थित कार्यकर्ता समय की पाबन्दी को एक बन्धन मानते हैं। उनकी अक्रमिक बुद्धि का तर्क होता है कि समय के साथ अपने को अथवा अपने काम को बाँध देने से मनुष्य उसका इतना अभ्यस्त हो जाता है कि यदि कभी संयोग, विवशता अथवा परिस्थितिवश उसे व्यवधान स्वीकार करना पड़ता है तो उसे बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। प्रातःकाल पढ़ने अथवा व्यायाम करने वाले को यदि दो-चार दिन के लिए बाहर यात्रा पर जाना पड़ जाए तो निर्धारित कार्यक्रम में व्यवधान पड़ जाने से उसकी अभ्यस्त वृत्तियाँ विद्रोह करेंगी, जिससे यात्रा अथवा प्रवास के समय पर उसे बड़ी भ्रान्ति, क्लान्ति एवं व्यग्रता रहेगी।

समय पर भोजन के अभ्यस्त ब्याह-शादियों, मंगलोत्सवों अथवा शोक-संतापों के अवसरों पर या तो भूखों रहते हैं अथवा खाने से बीमार हो जाते हैं। सुख-शान्ति, सन्तोष, सफलता एवं स्वास्थ्य आदि के पारितोषिक असामयिक जीवन-क्रम वालों से कोसों दूर रहा करते हैं। जिन्दगी जीने के लिए मिली है खो डालने के लिए नहीं। समय-सम्मत व्यवस्था के अभाव में इस परम दुर्लभ मानव-जीवन को न तो ठीक से जिया जा सकता है और न इसका कोई लाभ ही उठाया जा सकता है। यह सम्भव तभी हो सकता है जब जीवन का प्रत्येक क्षण किसी निश्चित कर्तव्य के लिए निर्धारित एवं जागरूक रहे।

असमय सोने-जागने, खाने-पीने और काम करने वाले आजीवन आरोग्य के दर्शन नहीं कर सकते। वे सदा-सर्वदा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आध्यात्मिक किसी न किसी व्याधि से पीड़ित रहेंगे। उनकी शक्ति में से कुछ को तो उनकी अव्यवस्था नष्ट कर देगी और शेष का व्याधियाँ शोषण कर लेंगी।

समय-संयम के साथ अपना हर काम करने वाले मनुष्यों का जीवन कभी असफल नहीं हो सकता है। भले ही परिस्थितिवश वे संसार में कोई अनुकरणीय कार्य न भी कर पाएँ, तब भी उनका जीवन असफल नहीं कहा जा सकता। सुख-शान्तितपूर्वक एक प्रिय जिन्दगी जी लेना स्वयं ही एक बड़ी सफलता है। सफलता का मानदण्ड कोई बड़ा काम ही नहीं है, उनका सच्चा मानदण्ड है—जीने की कला। जो सन्तोषपूर्वक जिन्दगी को कथनीयता के साथ जी सका है, वह निःसन्देह अपने जीवन में सफल हुआ है। एक छोर से दूसरे छोर तक जिसका जीवन एक व्यवस्थित कार्यक्रम की तरह स्निग्ध गति से न चलकर ऊबड़-खाबड़ गिरता-पड़ता और उलझता-सुलझता चलता है, उसके जीवन को असफल मान लेना ही न्याय-संगत होगा।

समय पर हर काम करने वालों की सारी शक्तियाँ उपभोग में आने पर भी अक्षय बनी रहती हैं। समय पर काम करने का अभ्यास एक सजग प्रहरी की तरह ही होता है, जो किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को अपने कर्तव्य का विस्मरण नहीं होने देता। समय आते ही सिद्ध किया हुआ अभ्यास उसे निश्चित कार्य की याद दिला देता है और प्रेरणापूर्वक उसमें लगा भी देता है। समय आते ही उक्त कार्य योग्य शक्तियों में जागरण एवं सक्रियता आ जाती है, जिससे मनुष्य निरालस्य रूप से अपने काम में लगकर उसे निर्धारित समय में ही पूरा कर लेता है। कार्य एवं कर्तव्यों की पूर्णता ही जीवन की पूर्णता है, जो कि बिना समय, संयम, एवं व्यवस्थित और क्रियाशीलता के प्राप्त नहीं हो सकती।

समय के प्रतिफल का सच्चा लाभ उन्हें मिलता है जो अपनी दिनचर्या बना लेते हैं और नियमित रूप से निरंतर उसी क्रम पर आरूढ़ रहने का संकल्प लेकर चलते हैं। एक दिन एक सेर घी खा लें और एक महीने तक जरा भी न खाएँ, एक दिन सौ दंड पेलें और बीस दिन तक व्यायाम का नाम भी न लें, तो उस ज्वार-भाटे जैसे उत्साह के उठने व ठंडे होने से क्या परिणाम निकलेगा? नियत समय पर काम करने से अंतर्मन को उस समय वही काम करने की आदत भी पड़ जाती है और इच्छा भी होती है। चाय, सिगरेट आदि नशे, जो लोग नियमित रूप से पीते हैं उन्हें नियत समय पर उसकी तलब उठती है और न मिलने पर बेचैनी होती है। इसी प्रकार नियत समय पर कुछ काम करने का अभ्यास डाल लिया है तो उस समय वैसा करने की इच्छा होगी, मन लगेगा और काम ठीक तरह पूरा होगा। मंदी चाल से चलने वाले कछुए ने तेज उछलने वाले किंतु क्षणिक उत्साही खरगोश से बाजी जीत ली थी। यह कहानी नियमित और निरंतर काम करने वालों पर अक्षरशः लागू होती है। मंदबुद्धि और स्वल्प साधनों वाले कालीदास सरीखे लोगों ने एक कार्य में दत्तचित्त होकर नियमित रूप से निरंतर काम करते रहने का क्रम बनाकर उच्चकोटि का विद्वान और कवि बनने में सफलता पाई। इस तरह की सफलता कोई भी प्राप्त कर सकता है। उसमें कोई जादू-चमत्कार नहीं, केवल व्यवस्थित और नियमित रूप से अपना सकता है और उन्नति के शिखर तक पहुँच सकता है।

निर्धारित समय में हेर-फेर करते रहने वाले बहुधा लज्जा एवं आत्मग्लानि के भागी बनते हैं। किसी को बुलाकर समय पर न मिलना, समाजों, सभाओं, गोष्ठियों अथवा आयोजनों के अवसर पर समय से पूर्व अथवा पश्चात् पहुँचना, किसी मित्र से मिलने जाने का समय देकर उसका पालन न करना आदि की शिथिलता सभ्यता की परिधि में नहीं मानी जा सकती है। देर-सवेर कक्षा अथवा कार्यालय पहुँचने वाला विद्यार्थी तथा कर्मचारी भर्त्सना का भागी बनता है। ‘लेट लतीफ’ लोगों की ट्रेन छूटती, परीक्षा चूकती, लाभ डूबता, डाक रुक जाती, बाजार उठ जाता, संयोग निकल जाते और अवसर चूक जाते हैं। इतना ही नहीं व्यावसायिक क्षेत्र में तो जरा-सी देर दिवाला तक निकाल देती हैं। समय पर बाजार न पहुँचने पर माल दूसरे लोग खरीद ले जाते हैं। देर हो जाने से बैंक बन्द हो जाता है और भुगतान रुक जाता है। समय चुकते ही माल पड़ा रहता है। असामयिक लेन-देन तथा खरीद-फरोख्त किसी भी व्यवसायी को पनपने नहीं देते।

समय का पालन मानव-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण संयम है। समय पर काम करने वालों के शरीर चुस्त, मन नीरोग तथा इन्द्रियाँ तेजस्वी बनी रहती हैं। निर्धारण के विपरीत काम करने से मन, बुद्धि तथा शरीर काम तो करते हैं किन्तु अनुत्साहपूर्वक। इससे कार्य में दक्षता तो नहीं ही आती है, साथ ही शक्तियों का भी क्षय होता है। किसी काम को करने के ठीक समय पर शरीर उसी काम के योग्य यन्त्र जैसा बन जाता है। ऐसे समय में यदि उससे दूसरा काम लिया जाता है, तो वह काम लकड़ी काटने वाली मशीन से कपड़े काटने जैसा ही होगा।

क्रम एवं समय से न काम करने वालों का शरीर-यन्त्र अस्त-व्यस्त प्रयोग के कारण शीघ्र ही निर्बल हो जाता है और कुछ ही समय में वह किसी कार्य के योग्य नहीं रहता। समय-संयम सफलता की निश्चित कुन्जी है। इसे प्राप्त करना प्रत्येक बुद्धिमान का मानवीय कर्तव्य है।

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