विलुप्त हो रहे फाग के पवित्र गीत,फूहड और अश्लील गीतों को मिल रहा बढावा–
कुर्ता फार होली खेलने की परम्परा अब दूर की बात—
विलुप्त हो रहे फाग के पवित्र गीत,फूहड और अश्लील गीतों को मिल रहा बढावा–
कुर्ता फार होली खेलने की परम्परा अब दूर की बात—
अब नहीं सुनाई देती बुरा न मानो होली है कि मिठास भरी हंसी ठिठोली—
हमारी विरासत….
भारतीय संस्कृति के परम्परागत गीत होली के फाग गीत अब गांवो में सुनाई नही दे रहें हैं। जो प्रकृति के सौन्दर्य और श्रृंगार को बताया करते थे। जिनके प्रति नेह-छोह के रागात्मक संवेदना को भी गीतो के माध्यम से उकेरा जाता था।
बसंत का माह आने के बाद गांव गांव मोहल्ले मोहल्ले में फगुआ गाने वालों की टोली पहुंच जाती थी और गांव की चौपालों में फगुआ सज जाया करता था लेकिन ना अब वह तो फगुआ गाने ही मिल रहे हैं और ना ही उनको सुनने वाले ही हैं फगुआ गीत अब के जमाने में लगभग बिलुप्त होनेपर हैं
होली के त्योहार पर पारम्परिक सम्बन्धो की मिठास कई गीतो के माध्यम से ब्यक्त किया जाता था। शिष्ट या सभ्य समाज की आधुनिक अवधारणा ने लोक भाषा में गाई जाने वाली फाग गीतों के गुनगुनाने वाली परम्परा पर असभ्य और असंस्कृत समाज की भाषा समृद्धशाली होती जा रही है। रामनगर गांव की 65 वर्षिय रानी देवी बताती है कि जब गोपियां स्नान कर रही होती है तो उनका वस्त्र भगवान कृष्ण ले कर कदम की डारी पर चढ जातें हैं गोपियां होली के चहका गीत के माध्यम से बिनती करती है। ले गईलै चीर हमारी लला चढ बैठें कदम के डारी हाथ तोरे जोडी ला ए गिरधारी, गोड तो पडी ला ए बनवारी दे द चीर तू हमारी लला चढ बैठा कदम की डारी —
एक जमाना था जब गांव की नई नवेली दुल्हन होरी गीत परिवार की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए गाती थी उनके गीतों से श्रोताओं केवल सम्मोहित ही नहीं होते बल्कि उन्हें एक सीख भी देती थी। महिलाओं के जुबां से मिठास भरे गीत के बोल होते थे– मोर पांव पैजनिया झनक बाजी पैजनिया पहन हम अंगनवा दलनिया में गईली ससुरू भसरू बढईता के गत लागी पांव पैजनिया पहन के हम महलिया में गईली सैया बढईता के नीक लागी— लेकिन अब फूहड गीतों के चलन के चलते फाग गीतों की मीठास प्रेम सौन्दर्य और श्रृंगार खत्म हो गई है। माघ मास की बसंत पंचमी के दिन से ही गावों में होलिका स्थापित करने व फाग गीतों के गुनगुनाने की परम्परा शुरू हो जाती थी जो अब न सुनने को मिल रहा है न देखने को । डीजे बाजो पर होली के फूहड गीतों की परम्परा बढती जा रही है। अब पुराने गीत केवल स्मृतियों में रह गई हैं। अब इन गीतों को सुनना गुनगुनाना खोए को पाने और पाए को बचाने को सोचने जैसा हो गया है। जोरिया गांव निवासी रामेन्द्रभूषणपांडेय व रामचंद्र तिवारी कहते हैं कि यह सच है कि फागुन मास गर्मी बरसात जाडा जैसे मौसम का ऋतुराज है तो फगुआ गीत रसराज है। इन गीतों के शब्द अर्थ की एक परिभाषा है जो आज के जमाने बदलते स्वरूप में इनको ग्रहण लगता जा रहा है। जिसके चलते मानवता भी पीडित हो रही है। भवननगर गांव के 70वर्षिय दुर्गा प्रसाद पांडे ने बताया कि पहले के गीतों में अश्लीलता नहीं थी जबकि आज जान बुझ कर गीतकार व गायक कानफोड़ू फूहड गीत को गाकर फाग गीतों की संस्कृति को बिगाड़ने का कार्य कर रहे हैं। पहले के अल्लहण गीतों में भी अश्लीलता नहीं थी।जिसे पूरा परिवार एक साथ गाता बजाता और मग्न होता था।
जो अब विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। आज के बदलते परिवेश में होली के फाग गीतों की पवित्रता भंग हुई है। इनका इसारा उन विडम्बनाओं एवं विसंगतियों पर है जो बदलते परिवेश में निरंतर बढती जा रही है। अपने भोजपुरिया अंदाज में बताते हैं कि हे देखा हो होली गीत के न ऊ गवईया रह गईले न सुनवईया अब चारों ओर फूहड़ गीत गवात बा अब के गीतों को सुन कर मन के ठेस लगेला,हूक उठेला बहुतै पीडा होला।फ़ागुन के गीत में यहां व्यंगय में विस्मय, करूणा में हल्का आक्रोश तो छुपे रूदन में हास्य भी शामिल हैं। इनमें शामिल आलोचना शिकवा शिकायत के तीखे तेवर से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।परास्नातक छात्र योगेश यादव अपने बचपन के दौर केदौरको याद करते हुए बताया कि बचपन में किसी को भी रंग अबीर-गुलाल लगा देते थे और किसी की भृगुटी टेढी भी हो जाती थी तो बस इतना बोल देते थे कि सारा रा रा रा रा रा रा बुरा न मानो होली है।और बुजुर्ग लोग मुस्कुराते हुए आशीर्वाद भी देते थे।लेकिन गवई राजनीति के चलते अब लोग इसका बुरा मतलब समझ कर विवाद करने पर उतारू हो जाते है
इतना ही नहीं युवा दोस्तों के साथ एक टोली बनाकर होलिका दहन के बाद दो दिनों तक होली की मस्ती में सराबोर कुर्ता फार होली खेलते थे।अब वह मस्ती गुजरे जमाने की बात है।महंगाई के दौर में दो जून की रोटी कमाने व जिन्दगी की भागम-भाग के चलते बचपन के समय की अल्हड़ होली अब नहीं खेलते हैं।